Saturday 25 February 2017

पितृ दोष और देव दोष के जिम्मेदार ज्योतिष्य योग

>पितृ दोष क लिए जिम्मेदार ज्योतिषीय योग:
1. लग्नेश की अष्टम स्थान में स्थिति अथवा अष्टमेष की लग्न में स्थिति।
2. पंचमेश की अष्टम में स्थिति या अष्टमेश की पंचम में स्थिति।
3. नवमेश की अष्टम में स्थिति या अष्टमेश की नवम में स्थिति।
4. तृतीयेश, यतुर्थेश या दशमेश की उपरोक्त स्थितियां। तृतीयेश व अष्टमेश का संबंध होने पर छोटे भाई बहनों, चतुर्थ के संबंध से माता, एकादश के संबंध से बड़े भाई, दशमेश के संबंध से पिता के कारण पितृ दोष की उत्पत्ति होती है।
5. सूर्य मंगल व शनि पांचवे भाव में स्थित हो या गुरु-राहु बारहवें भाव में स्थित हो।
6. राहु केतु की पंचम, नवम अथवा दशम भाव में स्थिति या इनसे संबंधित होना।
7. राहु या केतु की सूर्य से युति या दृष्टि संबंध (पिता के परिवार की ओर से दोष)।
8. राहु या केतु का चन्द्रमा के साथ युति या दृष्टि द्वारा संबंध (माता की ओर से दोष)। चंद्र राहु पुत्र की आयु के लिए हानिकारक।
9. राहु या केतु की बृहस्पति के साथ युति अथवा दृष्टि संबंध (दादा अथवा गुरु की ओर से दोष)।
10. मंगल के साथ राहु या केतु की युति या दृष्टि संबंध (भाई की ओर से दोष)।
11. वृश्चिक लग्न या वृश्चिक राशि में जन्म भी एक कारण होता है, क्योंकि वह राशि चक्र के अष्टम स्थान से संबंधित है।
12. शनि-राहु चतुर्थी या पंचम भाव में हो तो मातृ दोष होता है। मंगल राहु चतुर्थ स्थान में हो तो मामा का दोष होता है।
13. यदि राहु शुक्र की युति हो तो जातक ब्राहमण का अपमान करने से पीड़ित होता है। मोटे तौर पर राहु सूर्य पिता का दोष, राहु चंद्र माता ��ा दोष, राहु बृहस्पति दादा का दोष, राहु-शनि सर्प और संतान का दोष होता है।
14. इन दोषों के निराकारण के लिए सर्वप्रथम जन्मकुंडली का उचित तरीके से विश्लेषण करें और यह ज्ञात करने की चेष्टा करें कि यह दोष किस किस ग्रह से बन रहा है। उसी दोष के अनुरूप उपाय करने से आपके कष्ट समाप्त हो जायेंगे।

                      देवता दोष क्या?

देव दोष ऐसे दोषों को कहते हैं जो पिछले पूर्वजों, बुजुर्गो से चलें आ रहे हैं, जिसका देवताओं से संबंध होता है। गुरु और पुरोहित तथा ब्राहमण विद्वान पुरुषों को इनके पिछले पूर्वज मानते चले आते थे। इन्होंने उनको मानना छोड़ दिया अथवा वह पीपल जिस पर यह रहते थे, को काट दिया तो उससे देव दोष पैदा होता है। इसका असर औलाद तथा कारोबार पर विपरीत होता है। इसका संबंध बृहस्पति तथा सूर्य से होता है। बृहस्पति नीच सूर्य भी नीच या दो बुरे ग्रहों के घरे में हो तो यह दोष उत्पन्न होता है।

अपने समय के अनुरूप इस जातक के भाई ने कोई रूहानी गुरु धारण कर लिया और उस गुरु के कहने पर देवी देवता पुरोहित की पूजा छोड़ दी, जिससे कारोबार में अत्यधिक हानि होती गई। रुकती नहीं। पहले इनके पूर्वज बुजुर्गादि, देवी देवता व शहीदों मृतकों को मानते थे। परन्तु इन्होंने उनको मानना पूजा आदि छोड़ दी इस कारण ऐसा हुआ। दोबारा पूजा शुरू करने पर सब ठीक है।
मगर विशेष करके अगर आप पूजा करने मे समर्थ नही है तो  गयाजी आकर उन पितर को सदा के लिए स्थान देकर बैठा दीजिए जिससे आप बारबार आ रहे परेशानीयो से सदा मुक्त हो जायेगे

Friday 24 February 2017

पितरो का रूण बंधन और मुक्ती


प्रत्येक मनुष्य जातक पर उसके जन्म के साथ ही तीन प्रकार के ऋण अर्थात देव ऋण, ऋषि ऋण और मातृपितृ ऋण अनिवार्य रूप से चुकाने बाध्यकारी हो जाते है। जन्म के बाद इन बाध्यकारी होने जाने वाले ऋणों से यदि प्रयास पूर्वक मुक्ति प्राप्त न की जाए तो जीवन की प्राप्तियों का अर्थ अधूरा रह जाता है। ज्योतिष के अनुसार इन दोषों से पीड़ित कुंडली शापित कुंडली कही जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने मातृपक्ष अर्थात माता के अतिरिक्त माना मामा-मामी मौसा-मौसी नाना-नानी तथा पितृ पक्ष अर्थात दादा-दादी चाचा-चाची ताऊ ताई आदि को कष्ट व दुख देता है और उनकी अवहेलना व तिरस्कार करता है।

जन्मकुण्डली में यदि चंद्र पर राहु केतु या शनि का प्रभाव होता है तो जातक मातृ ऋण से पीड़ित होता है। चन्द्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है अतः ऐसे जातक को निरन्तर मानसिक अशांति से भी पीड़ित होना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मातृ ऋण से मुक्ति के प्श्चात ही जीवन में शांति मिलनी संभव होती है।

पितृ ऋण के कारण व्यक्ति को मान प्रतिष्ठा के अभाव से पीड़ित होने के साथ-साथ संतान की ओर से कष्ट संतानाभाव संतान का स्वास्यि खराब होने या संतान का सदैव बुरी संगति जैसी स्थितियों में रहना पड़ता है। यदि संतान अपंग मानसिक रूप से विक्षिप्त या पीड़ित है तो व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन उसी पर केन्द्रित हो जाता है। जन्म पत्री में यदि सूर्य पर शनि राहु-केतु की दृष्टि या युति द्वारा प्रभाव हो तो जातक की कुंडली में पितृ ऋण की स्थिति मानी जाती है।

माता-पिता के अतिरिक्त हमें जीवन में अनेक व्यक्तियों का सहयोग व सहायता प्राप्त होती है गाय बकरी आदि पशुओं से दूध मिलता है। फल फूल व अन्य साधनों से हमारा जीवन सुखमय होता है इन्हें बनाने व इनका जीवन चलाने में यदि हमने अपनी ओर से किसी प्रकार का सहयोग नहीं दिया तो इनका भी ऋण हमारे ऊपर हो जाता है। जन कल्याण के कार्यो में रूचि लेकर हम इस ऋण से उस ऋण हो सकते हैं। देव ऋण अर्थात देवताओं के ऋण से भी हम पीड़ित होते हैं। हमारे लिए सर्वप्रथम देवता हैं हमारे माता-पिता, परन्तु हमारे इष्टदेव का स्थान भी हमारे जीवन में महत्वपूर्ण है। व्यक्ति भव्य व शानदार बंगला बना लेता है अपने व्यावसायिक स्थान का भी विज्ञतार कर लेता है, किन्तु उस जगत के स्वामी के स्थान के लिए सबसे अन्त में सोचता है या सोचता ही नहीं है जिसकी अनुकम्पा से समस्त ऐश्वर्य वैभव व सकल पदार्थ प्राप्त होता है। उसके लिए घर में कोई स्थान नहीं होगा तो व्यक्ति को देव ऋण से पीड़ित होना पड़ेगा। नई पीढ़ी की विचारधारा में परिवर्तन हो जाने के कारण न तो कुल देवता पर आस्था रही है और न ही लोग भगवान को मानते हैं। फलस्वरूप ईश्वर भी अपनी अदृश्य शक्ति से उन्हें नाना प्रकार के कष्ट प्रदान करते हैं।

ऋषि ऋण के विषय में भी लिखना आवश्यक है। जिस ऋषि के गोत्र में हम जन्में हैं, उसी का तर्पण करने से हम वंचित हो जाते हैं। हम लोग अपने गोत्र को भूल चुके हैं। अतः हमारे पूर्वजों की इतनी उपेक्षा से उनका श्राप हमें पीढ़ी दर पीढ़ी परेशान करेगा। इसमें कतई संदेह नहीं करना चाहिए। जो लोग इन ऋणों से मुक्त होने के लिए उपाय करते हैं, वे प्रायः अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो जाते हैं। परिवार में ऋण नहीं है, रोग नहीं है, गृह क्लेश नहीं है, पत्नी-पति के विचारों में सामंजस्य व एकरूपता है संताने माता-पिता का सम्मान करती हैं। परिवार के सभी लोग परस्पर मिल जुल कर प्रेम से रहते हैं। अपने सुख-दुख बांटते हैं। अपने अनुभव एक-दूसरे को बताते हैं। ऐसा परिवार ही सुखी परिवार होता है। दूसरी ओर, कोई-कोई परिवार तो इतना शापित होता है कि उसके मनहूस परिवार की संज्ञा दी जाती है। सारे के सारे सदस्य तीर्थ यात्रा पर जाते हैं अथवा कहीं सैर सपाटे पर भ्रमण के लिए निकल जाते हैं और गाड़ी की दुर्घटना में सभी एक साथ मृत्यु को प्राप्त करते हैं। पीछे बच जाता है परिवार का कोई एक सदस्य समस्त जीवन उनका शोक मनाने के लिए। इस प्रकार पूरा का पूरा वंश ही शापित होता है। इस प्रकार के लोग कारण तलाशते हैं। जब सुखी थे तब न जाने किस-किस का हिस्सा हड़प लिया था। किस की संपत्ति पर अधिकार जमा लिया था। किसी निर्धन कमजोर पड़ोसी को दुख दिया था अथवा अपने वृद्धि माता-पिता की अवहेलना और दुर्दशा भी की और उसकी आत्मा से आह निकलती रही कि जा तेरा वंश ही समाप्त हो जाए। कोई पानी देने वाला भी न रहे तेरे वंश में। अतएव अपने सुखी जीवन में भी मनुष्य को डर कर चलना चाहिए। मनुष्य को पितृ ऋण उतारने का सतत प्रयास करना चाहिए। जिस परिवार में कोई दुखी होकर आत्महत्या करता है या उसे आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है तो इस परिवार का बाद में क्या हाल होगा? इस पर विचार करें। आत्महत्या करना सरल नहीं है, अपने जीवन को कोई यूं ही तो नहीं मिटा देता, उसकी आत्मा तो वहीं भटकेगी। वह आप को कैसे चैन से सोने देगी, थोड़ा विचार करें। किसी कन्या का अथवा स्त्री का बलात्कार किया जाए तो वह आप को श्राप क्यों न देगी, इस पर विचार करें। वह यदि आत्महत्या करती है, तो कसूर किसका है। उसकी आत्मा पूरे वंश को श्राप देगी। सीधी आत्मा के श्राप से बचना सहज नहीं है। आपके वंश को इसे भुगतना ही पड़ेगा, यही प्रेत बाधा दोष व यही पितृ दोष है। इसे समझें।
और यह पितृदोष मात्र गयाजी आकर अपने पितर के निमित्त पिन्डदान तर्पण आदी कर्म के द्वारा ही आप मुक्त हो सकते है अन्यथा नही

      गयायां पिंडतोयेन पितृमुक्तिच हेतवे

Wednesday 22 February 2017

पितृओ की शान्ती तर्पण आदि न करने से पाप


पित्रुओं की शांति एवं तर्पण आदि न करने वाले मानव के शरीर का रक्तपान पित्रृगण करते हैं अर्थात् तर्पण न करने के कारण पाप से शरीर का रक्त शोषण होता है।
पितृदोष की शांति हेतु सर्व श्रेष्ठ उपाय गया जी मे त्रिपिण्डी श्राद्ध, नारायण बलि कर्म, और पिन्डदान करे

त्रिपिण्डी श्राद्ध यदि किसी मृतात्मा को लगातार तीन वर्षों तक श्राद्ध नहीं किया जाए तो वह जीवात्मा प्रेत योनि में चली जाती है। ऐसी प्रेतात्माओं की शांति के लिए त्रिपिण्डी श्राद्ध कराया जाता है।

नारायण बलि कर्म यदि किसी जातक की कुण्डली में पित्रृदोष है एवं परिवार मे किसी की असामयिक या अकाल मृत्यु हुई हो तो वह जीवात्मा प्रेत योनी में चला जाता है एवं परिवार में अशांति का वातावरण उत्पन्न करता है। ऐसी स्थिति में नारायण बलि कर्म कराना आवश्यक हो जाता है।
पितृ देवता मन्त्र मंत्र जाप एक अचूक उपाय है। मृतात्मा की शांति के लिए भी मंत्र जाप करवाया जा सकता है। इसके प्रभाव से पूर्व जन्मों के सभी पाप नष्ट भी हो जाते है।

           देवताभ्य पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च
           नमः स्वाहा स्वधायै नित्यमेव नमो नमः

Tuesday 21 February 2017

पितृ दोष के लछण और उसके द्वारा होने वाला तकलीफ


घर में आय की अपेक्षा खर्च बहुत अधिक होता है।
घर में लोगों के विचार नहीं मिल पाते जिसके कारण घर में झगडे होते रहते है।
अच्छी आय होने पर भी घर में बरकत नहीं होती जिसके कारण धन एकत्रित नहीं हो पाता।
संतान के विवाह में काफी परेशानीयां और विलंब होता है।
शुभ तथा मांगलीक कार्यों में काफी दिक्कते उठानी पडती है।
अथक परिश्रम के बाद भी थोडा-बहुत फल मिलता है।
बने-बनाए काम को बिगडते देर नहीं लगाता

सपने मे पितर आकर दर्शन देना या कष्ट मे दिखाई देना
या सोते समय हाथ पैर कापना या छाती तेज गति से धडकना
सदा आत्महत्या करने की प्ररणा होना

पितृ दोष होने पर व्यक्ति का कष्ट

पितृ दोष होने पर व्यक्ति को जीवन में तमाम तरह की परेशानियां उठानी पड़ती है जैसे घर में सदस्यों का बिमार रहना मानसिक परेशानी सन्तान का ना होना कन्या का अधिक होना या पुत्र का ना होना पारिवारिक सदस्यों में वैचारिक मतभेद होना जीविकोपार्जन में अस्थिरता या पर्याप्त आमदनी होने पर भी धन का ना रूकना प्रत्येक कार्य में अचानक रूकावटें आना सर पर कर्ज का भार होना सफलता के करीब पहुँचकर भी असफल हो जाना प्रयास करने पर भी मनवांछित फल का ना मिलना आकस्मिक दुर्घटना की आशंका तथा वृद्धावस्था में बहुत दुख प्राप्त होना आदि। बहुत से लोगों की कुण्डली में कालसर्प योग भी देखा जाता है वस्तुतः कालसर्प योग भी पितृ दोष के कारण ही होता जिसकी वजह से मनुष्य के जीवन में तमाम मुसीबतों एवं अस्थिरता का सामना करना पड़ता है।


पितृ दोष से होने वाली हानिया


यदि किसी जातक की कुंडली मे पित्रृदोष होता है तो उसे अनेक प्रकार की परेशानियां, हानियां उठानी पडती है। जो लोग अपने पितरों के लिए तर्पण एवं श्राद्ध नहीं करते, उन्हे राक्षस, भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी-शाकिनी, ब्रहमराक्षस आदि विभिन्न प्रकार से पीडित करते रहते है।
घर में कलह, अशांति रहती है।
रोग-पीडाएं पीछा नहीं छोडती है।
घर में आपसी मतभेद बने रहते है।
कार्यों में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न हो जाती है।
अकाल मृत्यु का भय बना रहता है।
संकट, अनहोनीयां, अमंगल की आशंका बनी रहती है।
संतान की प्राप्ति में विलंब होता है।
घर में धन का अभाव भी रहता है।
अनेक प्रकार के महादुखों का सामना करना पडता है।

Wednesday 15 February 2017

पितृदोष किसे कहते है


हमारे पूर्वज, पितर जो कि अनेक प्रकार की कष्टकारक योनियों में अतृप्ति, अशांति, असंतुष्टि का अनुभव करते हैं एवं उनकी सद्गति या मोक्ष किसी कारणवश नहीं हो पाता तो हमसे वे आशा करते हैं कि हम उनकी सद्गति या मोक्ष का कोई साधन या उपाय करें जिससे उनका अगला जन्म हो सके एवं उनकी सद्गति या मोक्ष हो सके। उनकी भटकती हुई आत्मा को संतानों से अनेक आशाएं होती हैं एवं यदि उनकी उन आशाओं को पूर्ण किया जाए तो वे आशिर्वाद देते हैं। यदि पितर असंतुष्ट रहे तो संतान की कुण्डली दूषित हो जाती है एवं वे अनेक प्रकार के कष्ट, परेशानीयां उत्पन्न करते है, फलस्वरूप कष्टों तथा र्दुभाग्यों का सामना करना पडता है। और भयंकर परिणाम भुगतने पडते है इसलिए पितृदोष शांति अवश्य कराये

हमारे पूर्वज, पितर जो कि अनेक प्रकार की कष्टकारक योनियों में अतृप्ति, अशांति, असंतुष्टि का अनुभव करते हैं एवं उनकी सद्गति या मोक्ष किसी कारणवश नहीं हो पाता तो हमसे वे आशा करते हैं कि हम उनकी सद्गति या मोक्ष का कोई साधन या उपाय करें जिससे उनका अगला जन्म हो सके एवं उनकी सद्गति या मोक्ष हो सके। उनकी भटकती हुई आत्मा को संतानों से अनेक आशाएं होती हैं एवं यदि उनकी उन आशाओं को पूर्ण किया जाए तो वे आशिर्वाद देते हैं। यदि पितर असंतुष्ट रहे तो संतान की कुण्डली दूषित हो जाती है एवं वे अनेक प्रकार के कष्ट, परेशानीयां उत्पन्न करते है, फलस्वरूप कष्टों तथा र्दुभाग्यों का सामना करना पडता है

Saturday 4 February 2017

श्राद्ध विज्ञान और श्राद्ध या पिन्डदान सम्बन्धी सम्पूर्ण जानकारी

श्राद्ध विज्ञान
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को वैश्विक संस्कृति मानना सर्वथा यथोचित हैं, क्योंकि वसुधैव कुटुम्बकम् की उदात्त भावना की प्रेरणा का प्रादुर्भाव यहां से हुआ हैं । हम बचपन से बच्चों को चांदामामा एवं सूरजदादाकी कहानीयां सूनाती हैं । पूरे ब्राह्माण्डसे अपनापन रखनेका प्रयास भारतमें हि होता हैं । कीटादि ब्रह्मपर्यन्तम् एवं ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातन  द्वारा स्वयं भगवानने गीतामें कह दिया कि जीवमात्र मेरा अंश हैं, ईश्वर अंस जीव अविनाशी  । इसी संदर्भमें हम प्रत्येक जीवमात्र से निष्ठा-प्रेम-समर्पण द्वारा सहृयतापूर्ण व्यवहार करे इसलिए हमारी संस्कृतिने पांच यज्ञ-कर्म बताए हैं ।वेदानुसार यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं-
(1) ब्रह्म यज्ञ (2) देव यज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) वैश्वदेव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ ।
उक्त पाँच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है । इसी अनुसंधानमें पंचमहायज्ञ की परंपरा चालू हुई हैं । गोग्रास-कागवास-श्वानभाग-आतिथेयादि के द्वारा पशु-पक्षी-कीट-पतंगादि पर्यावरणके सभी जीवों की ईश्वररूपमें  यथा शक्ति सेवा करना हमारी संस्कृति हमे सिखाती हैं । गुरूदेव श्री राधाकृष्ण भगवानजी शुक्ल एवं स्वामि श्री हंसानन्दजी द्वारा मेरी स्वल्प बुद्धिमें जो ज्ञानबिन्दु हैं उसे इस विषयमें प्रस्तुत करनेका मैं प्रयास करता हु ।
आत्माका अविनाशत्व एवं कर्मवासना –
एक महत्वपूर्ण बात यह हैं कि हम आत्माको अमर मानते हैं । शरीर के विनाश से आत्माका नाश नहीं होता । न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।२०।। यह आत्मा किसी कालमें  न तो जन्मता है और न मरता ही है । वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२२।।  जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है ।  यहीं बातकी पुष्टि अनेक वेद-श्रुतियों तथा पुराणों में प्राप्त हैं । कितने ही युगो से हम (असंख्य जीव) प्राणवायु ले रहे है किन्तु, क्या प्राणवायु पूरा हो गया ? जल – अन्न एवं औषधियोंका भी इसी प्रकार अनंत कालसे हम उपयोग कर रहे हैं, यद्यपि वह खतम हुआ ? इसका रूपान्तरण मात्र हि होता हैं । भ्रष्ट राजकारणी भले हि महंगाई बढाए क्या परमात्माने कोई बील भेजा हैं ? प्रकृतिका अविनाशत्व सर्वत्र सदैव दृष्टिगोचर होता ही हैं ।
जब आत्माकी मृत्यु नही, आत्मा नित्य है तो फिर श्राद्ध द्वारा सद्गति का क्या रहस्य है ?  जो श्राद्ध नहीं करते उनकी क्या गति होती होगी ? यह सब जटिल प्रश्न है, जिनका समाधान करनेका यहां प्रयास करते है ।
जब आत्मा अविनाशी है तो, मृत्यके उपरान्त क्या होता होगा ? यह बात भी पूर्ण वैज्ञानिक पद्धतिसे आध्यात्मविज्ञान द्वारा प्रतिपादित होती हैं । प्रत्येक जीवमात्र के तीन शरीर होते हैं १-स्थूल शरीर, २-सूक्ष्म शरीर और ३-कारण शरीर । स्थुल शरीर जो पांचभौतिक हैं । दूसरा सूक्ष्म शरीर जो इन्द्रिय जन्य हैं और तीसरा कारण शारीर जो पूर्वजन्म की कर्मवासना व अधूरे कर्मभाग के कारण जो स्वभाव एवं संस्कार रूपमें मिला हैं । विस्तृत जानकारी के लिए पंचदेवोपासना मैंने गुजराती में लिखि थी, जिसमें सोदाहरण यह बात समझाने का नम्र प्रयास किया था, यहां अवकाश नहीं हैं । मृत्यु के उपरान्त पांचभौतिक स्थुल शरीर का तो हम अग्निसंस्कार या समाधि के द्वारा विलीन कर देते हैं । बाकी के दो शरीर यावद् मोक्ष भ्रममाण करते हैं  –  कर्मानुसार नूतन योनि प्राप्त करते हैं । यही बात गीतामें अति सहजता से कही गई हैं -
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: । 
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ ८ ॥  
वायु जिस प्रकार गन्ध को ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही जीवात्मा, मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है वहाँ उन्हें ले जाता है । इसकी पुष्टि एवं संगति एनेक ब्राह्मणग्रंथो (उपनिषदो) में भी प्राप्त हैं ।
तद्यः रमणीचरणा अभ्यासो रमणींयोनिमाप्नुयात् – छां.उप, योनिमन्यप्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनाम् कठ., सक्षेपस्तु यथाकारी स्तथा भवति बृह. जैसी श्रुतिया तथा शूचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोभि जायते
गीता एवं योग-ब्रह्मसूत्र के द्वारा कर्मविपाक एवं पुनर्जन्म पूर्ण वैज्ञानिक पद्धतिसे बताया गया हैं । एवं जन्मातर में भी ऋणानुबंध सिद्ध होता हैं, यथा श्राद्धविधि का कर्णकाण्डमें निरूपण हुआ हैं । पूर्वजोंको कैवल्य गतिके लिए श्राद्ध-तर्पणादि क्रिया अतिप्राचीन कालसे प्रचलित हैं ।
महाराज भगीरथ तो अपने पितृओंके लिए एक अंजलि हि नहीं, पूरी गंगाको पृथ्वीपर ले आए थे । पूर्व जन्मों के संस्कारों का अन्य जन्मोमें भी प्रभाव रहता है । एक हि परिवार में एक साथ पैदा हुए दो जातक को एक सा हि प्यार एवं शिक्षा अपने माता-पिता से मिलती हैं, यद्यपि उनके जीवनमें बडा अंतर हो सकता हैं । एक ही मां के दो बेटोमें से एक टेक्नोक्रेट बनता हैं, तो दुसरा लेखक । पूर्वके संस्कार उनकी अभिरूची बदलते हैं । यह संस्कार केवल एक जन्मके हि नहीं होते हैं जन्मान्तरों के होते हैं और उनका मूल कर्मवासना होती हैं । यह कर्मवासना से मुक्ति दिलानेकी क्रियाका नाम हैं श्राद्ध ।
श्राद्धकी पूर्वभूमिका व महिमा –
इसकि पूर्वभूमिका के रूपमें पुनर्जन्म समझना आवश्यक हैं, यथा स्वामि विवेकानन्दजी की प्रश्नोत्तरी यहां प्रस्तुत करते हैं । दार्शनिक विद्वान् स्वामी श्री विवेकानंदजी परिव्राजक आवागमन अथवा पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए श्रोताओं से प्रायः निम्न प्रश्नोत्तर करते हैं -
प्रश्न - आप किस बात को न्याय संगत मानते हैं – पहले कर्म किया जाय और फल बाद में दिया जाय, या पहले फल दिया जाए और कर्म बाद में किया जाय ?
उत्तर - पहले कर्म किया जाय और फल बाद में दिया जाय, यही न्याय संगत है |
प्रश्न - अच्छा ! अब यह बताइयें कि आपको पैदा होते ही जो यह शरीर मिला है, वह बिलकुल मुफ्त में मिला है, या किन्हीं कर्मों का फल है ?
उत्तर - मुफ्त में नहीं मिला है, बल्कि किन्हीं कर्मों का फल है |
प्रश्न - ठीक है ! अब मेरा अंतिम व तीसरा प्रश्न यह है कि - प्रथम आपने यह स्वीकार किया कि "पहले कर्म किया जाय और फल बाद में दिया जाय यही न्याय संगत है", और फिर यह कहा कि "यह शरीर मुफ्त में नहीं मिला, किन्हीं कर्मों का फल है" – तो कृपया अब यह बताइयें कि जिन कर्मों का फल यह शरीर है, वे कर्म आपने कब किये ?
उत्तर - पूर्व जन्म में ! तो पुनर्जन्म की सिद्धि हो ही गई |
पुनर्जन्म - बहुत से लोग पुनर्जन्म   की धारणा पर विश्वास  नही करते  क्यों के वे प्रमाण मांगते है और वैज्ञानिक सोच भी प्रमाण पर ही  आधारित  है । ऐसे बहुत से उद्दहरण पुनर्जन्म के है जिस का  का विज्ञानं के पास कोई जवाब नही है।
आजीवन मानव अनेक प्रकारकी आदतोंसे आदी हो जाता हैं । पान-तंबाकु-सिगरेट के आदी को बीना तंबाकु के बीना चैन नहीं आता – शौचादि क्रिया नहीं कर सकता और नींद खुलनेपर प्रथम इसीका स्मरण आता हैं - या थकान भी कम हो जाती हैं । ऐसे कई अच्छी-बुरी आदतोंसे मानवी आदी हो जाता हैं । ये इच्छाए इन्द्रियजन्य शरीर – सूक्ष्म शरीर से होती हैं और उसे ग्रहण करने के लिए भोगायतन – स्थूल – पांचभोतिक शरीर चाहिए । मृत्यु के उपरान्त आत्मा भी हैं, सूक्ष्म शरीर भी हैं किन्तु भोगायतन देह नहीं हैं, तब वासनापूर्ति के लिए जीवात्मा व्याकूल होता हैं । हम कर्मेन्द्रियों की अनुपस्थितिमें भी इन्द्रियजन्य विषयों की अनुभूति कर सकते हैं, जैसे स्वप्नमें आम्ररसका पान कर सकते हैं, स्त्रीसुख भोग सकते हैं । रोते हैं, हंसते हैं, खाते है, पीते है श्पर्श करते हैं, चित्र-विचित्र दृश्य देखते हैं और शब्द भी सूनते हैं । अवयादि श्राद्ध द्वारा मृतात्माको भागयतनका वायुदेह पुष्ट करनेका जो विधान हैं वही श्राद्धकी पूर्वभूमिका हैं ।
भारतीय संस्कृति ने यह तथ्य घोषित किया है कि मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता, अनन्त जीवन शृंखला की एक कड़ी मृत्यु भी है, इसलिए संस्कारों के क्रम में जीव की उस स्थिति को भी बाँधा गया है । जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है, कामना की जाती है कि सम्बन्धित जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान् बने । इस निमित्त जो कर्मकाण्ड किये जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को क्रिया-कर्म करने वालों की श्रद्धा के माध्यम से ही मिलता है । इसलिए मरणोत्तर संस्कार को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है । यों श्राद्धकर्म का प्रारम्भ अस्थि विसर्जन के बाद से ही प्रारम्भ हो जाता है । कुछ लोग नित्य प्रातः तर्पण एवं सायंकाल मृतक द्वारा शरीर के त्याग के स्थान पर या पीपल के पेड़ के नीचे दीपक जलाने का क्रम चलाते रहते हैं । मरणोत्तर संस्कार अन्त्येष्टि संस्कार के तेरहवें दिन किया जाता है ।
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का एक अबाध प्रवाह है । काया की समाप्ति के बाद भी जीव यात्रा रुकती नहीं है । आगे का क्रम भी भलीप्रकार सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है । सूक्ष्म विद्युत तरंगों के माध्यम से वैज्ञानिक दूरस्थ उपकरण का संचालन (रिमोट ऑपरेशन) कर लेते हैं । श्रद्धा उससे भी अधिक सशक्त तरंगें प्रेषित कर सकती है । उसके माध्यम से पितरों-को स्नेही परिजनों की जीव चेतना को दिशा और शक्ति तुष्टि प्रदान की जा सकती है । मरणोत्तर संस्कार द्वारा अपनी इसी क्षमता के प्रयोग से पितरों की सद्गति देने और उनके आशीर्वाद पाने का क्रम चलाया जाता है ।
संसारमें हमारे संबंध दो प्रकार के होते हैं १-स्थूल शरीरसे २-भावनात्मक शरीरसे । आजीवन हम, हमारे स्वजनों की इच्छापूर्ति व सेवा प्रत्यक्ष कर सकते हैं किन्तु मरणोपरान्त यह संभव नहीं है यथा भावनात्मक संबंध से उनकी इच्छाओंकी आपूर्ति करते हैं । यहांसे श्राद्धका प्रारम्भ होता हैं । श्रद्धया दीयते यस्माच्छ्राद्धं तेन प्रकीर्तितम् भाव से कुछ समर्पित किया जाता हैं तो भावात्मक शरीर उसे अवश्य प्राप्त करता हैं । टैलीपथी यहीं तो हैं – हमारे विचारों का भावात्मक शरीर द्वारा आदान-प्रदान । वाचाहीन प्राणी भी इससे ही अपना व्यवहार करते हैं । श्रद्धया दीयते यत्‌ तत्‌ श्राद्धम्‌  पितरों की तृप्ति के लिए जो सनातन विधि से जो कर्म किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं । देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्। पितृनुद्दिश्य विप्रभ्यों दत्तं श्राद्धमुदाह्रतम्।। ब्रह्मपुराण श्राद्धप्रकाश, पृ. 3 देश-काल एवं पात्रानुसार पितृनिमित् ब्राह्मण को जो कुछ देते है वहीं श्राद्ध होता हैं । श्राद्धसे तृप्त पितृ आयुःपुत्रान्यशःस्वर्गं कीर्तिंपुष्टिं बलं श्रियम् । पशून्सौख्यं धनंधान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् – यम स्मृति । श्राद्धसे तृप्त पितृ आयुष्य, पुत्र-पौत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री-सुयश, सुख, पशुधन, धन-धान्यादि आशिर्वादके रूपमें देते हैं । वैश्विक ग्रंथ गीता के प्रथमाध्यायमें हि भगवान कहते हैं पतन्तिपितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः गी.१.४२ जिनके पितृओंका पिंडदानादि-श्राद्धकर्म नहीं होता वे पतित होकर नाना-योनिमें अतृप्त वासना लेकर भटकते हैं । पूर्वजन्म कर्मविपाक समझनेसे यह पता चलेगा ।
ऎसा नहीं है कि सूक्ष्म शरीर की ये अवधारणा सिर्फ भारतीय है बल्कि "Egyptian Book of the Dead "   में भी सूक्ष्म शरीर के बारे में विचार प्रकट किए गए हैं । आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के डा. सेसिल ने भी प्रयोगों के आधार पर एक निष्कर्ष निकाला था कि स्थूल शरीर के समानान्तर किसी एक सूक्ष्म शरीर की सत्ता है,जो कि सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों के बावजूद कभी कभी शरीर को छोडकर दूर चली जाती है,हालांकि एक सुनहले रंग के सूक्ष्म तंतु(तार) के माध्यम से ये हर हाल में हमारे इस स्थूल शरीर की नाभी से जुडी रहती है। जब कभी यह सुनहला तंतु (तार) किसी कारणवश टूट जाता है तो उस सूक्ष्म सत्ता का स्थूल शरीर से फिर कोई संबंध नहीं रह जाता और यही किसी व्यक्ति की आकस्मिक मृ्त्यु का कारण बनता है। कुरानमें भी - फिर पुनर्जन्म के समय तुम उपर उठोगे पाक कुरआन 23-16 । अद्वैत वेदांत अनुसार कि "ब्रह्म सदैव विकासशील रहता है" । आधुनिक युग में इस स्थापना की सर्वप्रथम पुष्टि हुई आईंस्टीन के इस कथन द्वारा कि "यूनिवर्स निरन्तर प्रगति पर है"। स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति । क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां संयोगहेतुरपरोऽपि दृष्टः ॥१२॥ श्वेता.उपनिषद ५-१२ जीवात्मा अपने अर्जित कर्मसंस्कारोके अधीन अनेक योनिमें जन्म लेता हैं । वह कर्ममें स्वतंत्र होते हुए भी कहां जन्म लेना इस विषयमें परतंत्र हैं ।
श्राद्ध पितृओंको कैसे प्राप्त होता है –
यावतो ग्रसते ग्रासान् हव्यकव्येष मन्त्रवित् । तावतोग्रसते पिण्डान्शरीरे ब्रह्मणः पिता ।। यम.४०, यथागोष्ठे प्रणष्टांवै वत्सो विन्दते मातरम् । तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ।। वायु पुराण, देवोयाति पिताजातः शुभकर्मानुयोगतः । तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्योप्यनुगच्छति ।। मर्त्यत्वेह्यन्नरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत् । श्राद्धान्नं वायुरूपेण नागत्येप्युपतिष्ठति ।। पानं भवति यक्षत्वे नानाभोगकरं तथा ।। मत्स.पु, वा.पु, श्रा.कल्पलता, नामगोत्रं पुतृणां तु प्रापकं हव्यकव्ययोः । श्राद्धस्य मन्त्रतस्तत्त्वमुपलभ्येत भक्तितः।। अग्निष्वात्तादयस्तेषामाधिपत्ये व्यवस्थिताः । नामगोत्रास्तथादेशा भवन्त्युद्भवतामपि प.पु.सृ.खं १०-३८-३९, श्राद्धे तु क्रियमाणे वै न किंचिद्व्यर्थतां व्रजेत् । उच्छिष्टमपि राजेन्द्र तस्माच्छ्राद्धं समाचरेत् ।। वी.मित्रो.  श्रुति-स्मृति-पुराणो व शास्त्रार्थ ग्रंथोमें असंख्य स्थानोंपर अति सुंदर तर्को एवं सोदाहरण श्राद्ध की वैज्ञानिकता को समजाया गया हैं ।
उपरोक्त सभी कथनोका सार इस प्रकार हैं । पितृओंको याद करके श्रद्धापूर्वक दिया हुआ दान व क्रिया श्राद्ध कहलाता हैं, जो पितृओंको प्राप्त होता हैं । हमारा दिया हुआ कव्य (श्राद्धान्न-पिंड) मंत्र (स्वाधा) के साथ पितृओंको प्राप्त होता हैं । जिस प्रकार वत्स गायों की गोष्ठिमें अपनी हि मातासे स्तनप्राप्त करता हैं, मन्त्र व श्रद्धारूपी वत्स भी अपने पितृओंके पास ही पहुंचता हैं । यदि पितृ अन्य देश-प्रदेशमें होंगे तो जिस प्रकार भारत का रूपिया अमेरिकामें डॉलर बनकर स्वजनको मिलता हैं ठीक उसी प्रकार हमारा दिया हुआ कव्य भी यथेच्छरूप में परिणित होकर पितृओंको ही मिलेगा । जिस प्रकार हमारे शरीरमें अनेक अवयव हैं और सभीको यथेष्टरूपमें पुष्टि अन्नद्वारा-वैश्वानर द्वारा मिलती हैं । खाए हुए अन्न व औषध से हाथ भी पुष्ट होते हैं, पांव भी पुष्ट होते हैं, मन व इन्द्रिया भी पुष्ट होती हैं, तो रोग निवृत्ति भी होती हैं – चाहे फिर कब्ज का निदान हो या दस्तका, मेदस्विता दूर करनी हो या दुर्बलत्व । विराट परमात्मा के शरीरमें असंख्य ब्रह्माण्ड समाविष्ट हैं और वो हमारे अंशी हैं और भगवान अग्नि-वैश्वानर द्वारा प्राप्त हव्य कव्य प्राप्त होता ही हैं । समुद्रका जल मेघ बनकर हमारे देशमें वर्षाके रूपमें आता ही हैं । शास्त्रानुसार हमारें पितृ अपने कर्मानुसार जो भी योनिमें हो, हमारा श्राद्ध उन्हें प्राप्त होता हैं । यति वे देवयोनिमें है तो अमृत बनकर, मृत्युलोकमें हो तो अन्न बनकर, पशुयोनिमें हो तो तृण-घास बनकर, नागयोनिमें हो तो वायु बनकर, जो किसी योनिमे हो श्राद्ध अवश्य प्राप्त होता हैं, वह कदापि व्यर्थ नहीं जाता ।
हमारी इन्द्रियों के अभिमानी देवता होते हैं – आधिदैविक शक्तियां होती हैं, जो स्थूल इन्द्रियों को विषय प्राप्ति मे सहयोगी होती हैं । देखनेके लिए चक्षु होने चाहिए जो हमारी स्थूल इन्द्रिय हैं, किन्तु केवल चक्षुसे काम नहीं चलेगा । उसमें आधिदैविक शक्ति – प्रकाश के देवकी कृपा होनी चाहिए, अन्यथा चक्षु होते हुए भी दृश्य नहीं दिखता । ठीक इसी प्रकार श्राद्धके भी देवता हैं (आधिदैविक) वसु-रूद्र-आदित्य-विश्वेदेवा इत्यादि जो हमारे हव्य कव्य से स्वयं पुष्ट होते हैं और हमारे पूर्वजोंको भी हमारा श्राद्ध पहुचाते हैं ।  भगवति श्रुति कहती है वाचंधेनुमुपासीत तस्या चत्वारस्तनाः । स्वाहाकारो वषट्कारो हन्तकारः स्वधाकारस्तस्यै द्वौ स्तनौ देवाउपजिवन्ति स्वाहाकारं वषट्कारं च हन्तकारं मनुष्याः स्वधाकारं पितरस्तस्याः प्राणः वृषभो मनो वत्सः । वाणीरूपी गायको चार स्तन हैं – स्वाहाकार, स्वधाकार, हन्तकार एवं वषट्कार । इनमेंसे स्वाहाकार एवं वषट्कार रूपी स्तनोसे देवताओं की पुष्टि होती हैं, स्वधाकार से पितृओंकी एवं वषट्कार से मनुष्योंकी । प्राण उसका पति-वृषभ है और मन वत्स । इस पयामृतको हव्य-कव्य रूपमें पहूंचाने का काम स्वाहा-स्वाधादि मंत्रके माध्यमसे विश्वेदेवा करते हैं । आपस्तम्ब ऋषि का कथन है कि जैसे देवताओं के लिए हवनीय पदार्थ अग्नि में डाले जाते हैं उसी तरह पितरोंके लिए कव्य दिया जाता है और श्राद्ध से सूक्ष्म शरीर पुष्ट होता रहता है ।  पुराण का कथन है कि पितर नहीं है, ऐसा मानकर जो श्राद्ध नहीं करता वह जीवन के पश्चात् भी कष्ट पाता है।
श्राद्ध के देवता, पितृओं की कोटि एवं श्राद्धकी कैसे पितृओंको मिलता हैं -
आपस्तम्ब धर्मसूत्र[124] के अनुसार पुराने जमाने में मनुष्य और देव इसी लोक में बसते थे। देव लोग यज्ञ करके स्वर्ग चले गए, पर मनुष्य यहीं रह गए। जो लोग देवों के समान यज्ञ करते हैं, वे भी परलोक में देवों और पितरों के साथ निवास करते हैं। इसके लिए मनु ने जिस कृत्य का आरंभ किया, उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध का श्रद्धा भाव मानव जाति को मुक्ति और आनंद की ओर ले जाता है। मनु के इस योगदान के लिए भागवत पुराण में मनु को साक्षात श्राद्ध देव कहा गया है। महाभारत के शांति पर्व के अनुसार श्राद्ध प्रथा का प्रारंभ विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ। विष्णु को पिता, दादा और परदादा के दिए तीन पिंडों में अवस्थित माना गया है।
ब्रह्माण्डपुराण[125] ने मनु को श्राद्ध के कृत्यों का प्रवर्तक एवं विष्णुपुराण[126], वायु पुराण[127] एवं भागवत पुराण[128] ने श्राद्धदेव कहा है। इसी प्रकार शान्तिपर्व[129] एवं विष्णुधर्मोत्तर॰[130] में आया है कि श्राद्धप्रथा का संस्थापन विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह और प्रपितामह को दिये गये तीन पिण्डोंमें अवस्थित मानना चाहिए ।
यजुर्वेद पितरोंका आवाहन करते हुए कहता है कि सोम एवं अग्निष्वाता के सहित  पितृगणदेवमार्ग से विमानों पर सवार होकर हमारे समीप आवें । सामान्य पितर व दिव्य पितर। सामान्य पितर तो यथाकाल पुन:कर्मानुसारजन्म धारण करते रहते हैं किंतु दिव्य पितर स्थिर रहते हैं और ये सात हैं जिनमें चार मूर्तिमान हैं-सुकाला, आङ्गिरस, सुस्वधाव सोम। तीन अमूर्त हैं - बैराज, अग्निष्वाता व वर्हिषद्।ये तीनों अमूर्तदिव्य पितर कामरूप हैं। ये परमाणु के उदर में भी प्रविष्ट हो सकते हैं। ये जब तृप्त हो जाते हैं तब उस वंश के लोगों को पुष्टि प्रदान करते हैं । श्राद्ध के देवता वसु, रूद्र एवं आदित्य हैं ।
इष्टिश्राद्धे क्रतुर्दक्षो वसुःसभ्यश्च वैदिके । कालकामोग्निकार्येषु काम्येषु धूरिलोचनौ ।। पुरूरवार्दवश्चैव पार्वणेषु नियोजयेत् ।। वैश्देवेन ये हीना आतिथ्येन विवर्जिताः। सर्वेते वृषलाज्ञेयाः प्राप्तवेदा अपिद्विजाः।। शंख व लिखित स्मृतिके अनुसार इष्टिश्राद्ध मे क्रतु-दक्ष, वैदिक (नान्दीश्राद्ध) मे सत्य-वसु, अग्निकार्य-सपिण्डिकरण में काल-काम, काम्य श्राद्ध में धूरि-लोचन, अतिथि श्राद्ध मे पुरूरवा-आर्द्रव विश्वेदेवा - श्राद्धदेवता हैं ।
श्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाना प्रमुख कृत्य है। क्योंकि ब्राह्मण अग्निका रूप हैं श्रुति कहती है भगवान के श्रीमुख से अग्नि एवं ब्राह्मण उत्पन्न हुए हैं – ब्राह्मणोस्यमुखमासीद् एवं मुखादग्निरजायत ब्राह्मणको खिलाना मतलब स्वयं परमात्माके मुखमें ग्रास देना बराबर हैं, यही कथनकी पुष्टि पुराणों व स्मृतियोंमें अनेक स्थान पर उई हैं । मोक्षके देवता जनार्दन-विष्णु हैं – मोक्षमिच्छज्जनार्दनात् । यद्ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोनुघासं तुष्टस्यमय्यवहितैर्नजकर्मपाकैः श्रीमद्भागवत् ३-१६-८ मैं यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मोसे भी उत्तम ब्राह्मणको दिए हुए भोजनसे प्रसन्न होता हुं । पितरों के पास उनकी संतान के द्वारा दिया गया पिंडदान मंत्रयान पर सवार होकर आहुति के जरिए उन तक पहुंचता है। देवगण को आहुति देते हुए हम स्वाहा कहते हैं और पितरों को आहुति देते हुए स्वधा कहते हैं। स्वाहा से देवता तुष्ट होते हैं और स्वधा से पितर संतुष्ट होते हैं। ऋग्वेद में भी देव पितरों से कहते हैं, यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा और सूर्य तुम्हारा प्रकाश। पिंडदान करते हुए शतपथ का कथन है – हे पिता, यह पिंड तुम्हारे लिए है उनके लिए जो तुम्हारे बाद आते हैं और उनके लिए भी जिनके बाद तुम आते हो । 
श्राद्ध प्रकार -
शास्त्रानुसार नित्यं नैमित्तकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं सपिण्डनं, पार्वणचेति विज्ञेय गोष्ठ्यांशुद्ध्यर्थ अष्टमम् । कर्मांगं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम्, यात्राष्वेकादशं प्रोक्तं पुष्ट्यर्थं द्वादशंस्मृतम् ।। नित्य श्राद्ध, नैमित्तिक श्राद्ध, काम्य श्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध, सपिण्डन श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, गोष्ठी श्राद्ध, शुद्धयर्थ श्राद्ध, कर्मांग श्राद्ध, दैविक श्राद्ध, यात्रार्थ श्राद्ध एवं पुष्टयर्थ श्राद्ध ।
नित्य श्राद्ध - प्रतिदिन किए जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। नित्य श्राद्ध के अंतर्गत श्राद्ध करने वाला व्यकित तिल, अनाज, पानी, दूध, फल और सब्जियां आदि दिवंगत आत्मा को अर्पित करता है।
नैमित्तिक श्राद्ध - इस श्राद्ध को एकोदिष्ट श्राद्ध के नाम से जाना जाता है। नैमश्कि श्राद्ध में नित्य श्राद्ध की भांति प्रतिदिन भोजन नहीं दिया जाता है। बल्कि पंडितों के अनुसार विषम तिथि यथा एकादशी, त्रयोदशी या पंचमी को पित्रों को भोजन अर्पित किया जाता है।
काम्य श्राद्ध - इस श्राद्ध में किसी मनोकामना के साथ दिवंगत आत्मा की पूजा की जाती है।
वृद्धि श्राद्ध - यह श्राद्ध संपन्नता व बच्चों के लिए किया जाता है। इसके अलावा वृद्धि श्राद्ध को विवाह व पुत्र जन्म आदि में किया जाता है। जिन लोगों का उपनयन संस्कार हुआ है केवल वही लोग वृद्धि श्राद्ध कर सकते हैं।
सपिण्डन श्राद्ध - इस श्राद्ध में चार बर्तन लिए जाते हैं। जिनमें से प्रत्येक बर्तन में तिल व फूलों समेत पानी भरा जाता है। ये चारों बर्तन प्रेतात्मा, पितात्मा, देवात्मा और दूसरी अनाम आत्माओं के सांकेतिक स्वरूप होते हैं। सपिंडन श्राद्ध में एक बर्तन के पानी को दूसरे बर्तन के पानी में मिलाया जाता है।
पार्वण श्राद्ध - पार्वण श्राद्ध किसी विशेष अवसर पर अमावस्या के दिन किया जाता है।
गोष्ठी श्राद्ध - गोष्ठी श्राद्ध मवेशियों की प्राप्ति के लिए किया जाता है।
शुद्धयर्थ श्राद्ध - शुद्धयर्थ श्राद्ध पंडित की सहायता से पुर्वजों को मनाकर धन प्राप्ति के लिए किया जाता है।
कर्मांग श्राद्ध - जब कोई महिला गर्भवती होती है या जब सीमांतोनयन और पुंसवन संस्कार होता है तब कर्मांग श्राद्ध किया जाता है।
दैविक श्राद्ध - मंगलमय यात्रा व देवी-देवताओं की कृपा के लिए पवित्र अग्नि में घी डालकर दैविक श्राद्ध किया जाता है।
यात्रार्थ श्राद्ध(औपचारिक श्राद्ध) - स्वास्थ्य व बीमारियों से मुकित के लिए औपचारिक श्राद्ध किया जाता है।
पुष्टयर्थ श्राद्ध (संवतसारिक श्राद्ध) - संवतसारिक श्राद्ध सभी श्राद्धों में सबसे अच्छा माना जाता है। यह श्राद्ध उसी दिन किया जाता है जिस तिथि में मरने वाला व्यकित शरीर त्यागता है। संवतसारिक श्राद्ध अत्यंत महत्वपूर्ण अनुष्ठान है। भविष्य पुराण में सूर्य देवता ने कहा है कि मैं उन लोगों की प्रार्थना को कदापि स्वीकार नहीं करता जिन लोगों ने संवतसारिक श्राद्ध नहीं किया हो या जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश की पूजा न करते हों।
उपसंहार –
कुछ लोग शंका करते हैं कि कई सम्प्रदाय श्राद्ध नहीं करते उनके पितरों को क्या गति नहीं मिलती होगी । सीधा जवाब यही हैं कि हम जिस देशमें रहते है उसीकी कानून व्यवस्था मानना पडता हैं । यूरोपमें सडक पर थूंकने पर पाउन्ड में दंड भरना पडता हैं, भारतमें आजकत किसीने ऐसा दंड नहीं भरा । एक कृत्य किसी देश-प्रदेशमें अपराध  होता हैं तो अन्य प्रदेशमें न भी हों । जिस धार्मिक सम्प्रदायके हम अनुयायी हैं, उसीके अनुशासनिक नियम व वाते हमें बाध्य करती हैं अन्य नहीं ।
जिस मार्गपर चल रहे हैं इसीके नियमों का पालन हमारे लिए अनिवार्य होता हैं । हर क्रिया का कार्य-कारण संबंध प्रयोगशालामें सिद्ध नहीं कर सकते – श्रद्धाका सवाल है प्रमाणों की जरूरत नहीं यूं तो पूरे कुरानमें खुदाके दस्तखत नहीं – श्रद्धावान् प्राप्यते सर्वं संशयात्मा प्रणश्यति ।
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणमें गया के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। वनवास के काल में पितृमरणको सुनकर भगवान् राम ने चित्रकूट स्थित मंदाकिनी में जाकर पिण्डदान तथा जलदान किया था। महाभारत के हरिवंश में भीष्म पितामह एवं युधिष्ठिर संवाद का वर्णन है जिसमें युधिष्ठिर पूछते हैं कि पितामह मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा स्वर्ग में जाता है अथवा नरक में। सभी प्राणी अपने नियत कर्मों का फल भोगते हैं तब भला इस श्राद्ध का क्या प्रयोजन? इसका उत्तर देते हुए भीष्म कहते हैं राजन् जिन्हें पुष्टि प्राप्त करनी हो उन्हें श्राद्ध अवश्य करना चाहिए । पितामह भीष्म ने कहा कि एक बार मैं अपने पिता शान्तनुके निमित्त श्राद्ध कर रहा था। उस समय जैसे ही मैं कुश पर पिण्ड रखने चला मेरे पिता का हाथ प्रत्यक्ष आ गया और ध्वनि हुई कि मेरे हाथ पर पिण्ड रख दो। मैं अपने पिता का हाथ एवं वाणी भी पहचान गया किंतु द्विविधाग्रस्तहो गया कि पिण्ड कहां दें। अंत में मैं अनेक ऊहापोह के पश्चात् पिण्ड को हाथ पर न रखकर शास्त्रानुसारकुश पर ही रखा। मेरी इस शास्त्रनिष्ठाको देखकर पिता अत्यंत प्रसन्न होकर मधुर वाणी में बोले कि हे भरतश्रेष्ठ!तुम निष्पाप हो तुम्हें मैं इच्छा-मृत्यु का वरदान देता हूं । भगवान श्रीरामचन्द्रजी भी श्राद्ध करते थे। पैठण के महान आत्मज्ञानी संत हो गये श्री एकनाथ जी महाराज। पैठण के निंदक ब्राह्मणों ने एकनाथ जी को जाति से बाहर कर दिया था एवं उनके श्राद्ध-भोज का बहिष्कार किया था। उन योगसंपन्न एकनाथ जी ने ब्राह्मणों के एवं अपने पितृलोक वासी पितरों को बुलाकर भोजन कराया। यह देखकर पैठण के ब्राह्मण चकित रह गये एवं उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना की।
जिन्होंने हमें पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, हममें भक्ति, ज्ञान एवं धर्म के संस्कारों का सिंचन किया उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण करके उन्हें तर्पण-श्राद्ध से प्रसन्न करने की इस विधि में मृतात्मा की पूजा एवं उनकी इच्छा-तृप्ति का सिद्धान्त समाहित होता है ।
प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर देवऋण, पितृऋण एवं ऋषिऋण रहता है। श्राद्धक्रिया द्वारा पितृऋण से मुक्त हुआ जाता है। देवताओं को यज्ञ-भाग देने पर देवऋण से मुक्त हुआ जाता है। ऋषि-मुनि-संतों के विचारों को आदर्शों को अपने जीवन में उतारने से, उनका प्रचार-प्रसार करनेसे एवं उन्हे लक्ष्य मानकर आदरसहित आचरण करनेसे ऋषिऋण से मुक्त हुआ जाता है।
श्राद्ध के विषयमें कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत इस प्रकार हैं – श्री विक्टर ई क्रोमरने (Victor E. Cromer) व्रील (Vril) शक्तिकी बात की है, जो परलोकवासी आत्माओंसे संपर्क करा सकती हैं । श्री फ्लेमेरियन (Flammarion) का कहना हैं कि हमारे पास एक अतीन्द्रीय शक्ति हैं, जो मृत्युके उपरान्त भी हमारे साथ रहती है । श्री आर्थर कानन डायले (Sir Arther Conan Doyle) का मानना है कि मृतात्मा परलोक में निवास करते है उसका मुझे विश्वास हैं । सर ऑलीवर लोजे (Sir Oliver Lodge) अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रेमन्ड (Raymond) में लिखते है मृत एवं जिवीत जीवों के बीच पार्थक्यजनक अंतर नहीं हैं । एडवर्ड सी रंडल(Edward C. Randall) का कहना है कि आत्मा  सूक्ष्म शरीरको लेकर पुकारनेपर आता है, जिसके द्वारा वह जीवित से व्यवहार करता हैं । हमारी संस्कृति स्नेह एवं समर्पण की संस्कृति हैं – यहां संस्कार होते हैं – करार नहीं क्योंकि करारमें समर्पणसे ज्यादा अपेक्षा होती हैं । पृथ्वी से ब्रह्माण्ड – नक्षत्र – ग्रह  जिसे भी हम जानते हैं, हम अपना बनाते हैं, तो जो हमारे हैं उनको हम मरणोपरान्त कैसे भूल सकते हैं – कैसे उनसे नाता तोड सकते हैं । सूर्य-चंद्र-नक्षत्रों से हमे संबंध है, यथा हम सूर्योपासना या ग्रहशांति करते हैं वैसे हि पितरोसे भी हम श्राद्धद्वारा हमारा सम्बंध कायम करतै हैं ।
श्राद्ध के विषयमें यह पर्याप्त नहीं हैं, यद्यपि अवकाश एवं मेरे ज्ञानकी मर्यादाके कारण यहां विराम करते हैं.. आप  विद्वज्जन  के चरणों  में समर्पित जय नारायण