Tuesday 22 August 2017

श्राद्ध या पिन्डदान कितने प्रकार के है

श्राद्ध या पिन्डदान कितने प्रकार के है
श्राद्ध या पिन्डदान क्यो करना चाहिए श्राद्ध या पिन्डदान के महत्व विषय के लिए अवश्य पढ़े

पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले तर्पर्ण, ब्राह्मण भोजन, दान आदि कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है. इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं. श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है.

श्राद्ध या पिन्डदान दोनो एक ही शब्द के दो पहलू है पिन्डदान शब्द का अर्थ है अन्न को पिन्डाकार मे बनाकार पितर को श्रद्धा पूर्वक अर्पण करना इसी को पिन्डदान कहते है दझिण भारतीय पिन्डदान को श्राद्ध कहते है

श्राद्ध के प्रकार

शास्त्रों में श्राद्ध के निम्नलिखित प्रकार बताये गए हैं -

1.    नित्य श्राद्ध : वे श्राद्ध जो नित्य-प्रतिदिन किये जाते हैं, उन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. इसमें विश्वदेव नहीं होते हैं.
2.    नैमित्तिक या एकोदिष्ट श्राद्ध : वह श्राद्ध जो केवल एक व्यक्ति के उद्देश्य से किया जाता है. यह भी विश्वदेव रहित होता है. इसमें आवाहन तथा अग्रौकरण की क्रिया नहीं होती है. एक पिण्ड, एक अर्ध्य, एक पवित्रक होता है.
3.    काम्य श्राद्ध : वह श्राद्ध जो किसी कामना की पूर्ती के उद्देश्य से किया जाए, काम्य श्राद्ध कहलाता है.
4.    वृद्धि (नान्दी) श्राद्ध : मांगलिक कार्यों ( पुत्रजन्म, विवाह आदि कार्य) में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि श्राद्ध या नान्दी श्राद्ध कहते हैं.
5.     पावर्ण श्राद्ध : पावर्ण श्राद्ध वे हैं जो आश्विन मास के पितृपक्ष, प्रत्येक मास की अमावस्या आदि पर किये जाते हैं. ये विश्वदेव सहित श्राद्ध हैं.
6.    सपिण्डन श्राद्ध : वह श्राद्ध जिसमें प्रेत-पिंड का पितृ पिंडों में सम्मलेन किया जाता है, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है.
7.    गोष्ठी श्राद्ध : सामूहिक रूप से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं.
8.    शुद्धयर्थ श्राद्ध : शुद्धयर्थ श्राद्ध वे हैं, जो शुद्धि के उद्देश्य से किये जाते हैं.
9.    कर्मांग श्राद्ध : कर्मांग श्राद्ध वे हैं, जो षोडश संस्कारों में किये जाते हैं.
10.    दैविक श्राद्ध : देवताओं की संतुष्टि की संतुष्टि के उद्देश्य से जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें दैविक श्राद्ध कहते हैं.
11.    यात्रार्थ श्राद्ध : यात्रा के उद्देश्य से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थ कहते हैं.
12.    पुष्टयर्थ श्राद्ध : शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुष्टता के लिये जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें पुष्टयर्थ श्राद्ध कहते हैं.
13.    श्रौत-स्मार्त श्राद्ध : पिण्डपितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि श्राद्ध स्मार्त श्राद्ध कहलाते हैं.

कब किया जाता है श्राद्ध?

श्राद्ध की महत्ता को स्पष्ट करने से पूर्व यह जानना भी आवश्यक है की श्राद्ध कब किया जाता है. इस संबंध में शास्त्रों में श्राद्ध किये जाने के निम्नलिखित अवसर बताये गए हैं -
1.   आश्विन मास के पितृपक्ष के 16 दिन.
2.   वर्ष की 12 अमावास्याएं तथा अधिक मास की अमावस्या.
3.   वर्ष की 12 संक्रांतियां.
4.   वर्ष में 4 युगादी तिथियाँ.
5.   वर्ष में 14 मन्वादी तिथियाँ.
6.   वर्ष में 12 वैध्रति योग
7.   वर्ष में 12 व्यतिपात योग.
8.   पांच अष्टका.
9.   पांच अन्वष्टका
10.   पांच पूर्वेघु.
11.   तीन नक्षत्र: रोहिणी, आर्द्रा, मघा.
12.   एक कारण : विष्टि.
13.   दो तिथियाँ : अष्टमी और सप्तमी.
14.   ग्रहण : सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण.
15.   मृत्यु या क्षय तिथि.

क्यों आवश्यक है श्राद्ध?

श्राद्धकर्म क्यों आवश्यक है, इस संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं -
1.    श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का माध्यम है.
2.    श्राद्ध पितरों की संतुष्टि के लिये आवश्यक है.
3.    महर्षि सुमन्तु के अनुसार श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता का कल्याण होता है.
4.    मार्कंडेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विघ्या, सभी प्रकार के सुख और मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं.
5.    अत्री संहिता के अनुसार श्राद्धकर्ता परमगति को प्राप्त होता है.
6.    यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितरों को बड़ा ही दुःख होता है.
7.    ब्रह्मपुराण में उल्लेख है की यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितर श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को शाप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं. शाप के कारण वह वंशहीन हो जाता अर्थात वह पुत्र रहित हो जाता है, उसे जीवनभर कष्ट झेलना पड़ता है, घर में बीमारी बनी रहती है.

श्राद्ध-कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करें

श्राद्ध कर्म को शास्त्रोक्त विधि से ही करना चाहिए. शास्त्रों में दिए गए नियमों का पूर्णतः पालन होना चाहिए, तभी श्राद्ध कर्म अपने उद्देश्य की पूर्ती कर पाते हैं. महाभारत के अनुशासन पर्व में इस संबंध में एक आख्यान मिलता है. भीष्म अपने पिता शांतनु का श्राद्ध करने के लिये हरिद्वार गए. वहां उन्होंने कई सिद्ध ऋषियों को बुलाकर श्राद्ध कर्म आरम्भ किया. एकाग्रचित होकर उन्होंने जैसे ही विधिवत पिंडदान देना आरम्भ किया, तो पिण्डदान देने के लिये पिण्ड वेदी पर जो कुश बिछाए गए थे, उनमें से एक हाथ निकलकर बाहर आया. यह हाथ भीष में पिता शांतनु का था. शांतनु स्वयं अपने निमित्त पिण्ड का दाल लेने के लिये उपस्थित हो गए थे. ज्ञानी पुरूष भीष्म ने पिण्ड का दान उनके हाथ में न करके इस हेतु बनाई गयी वेदी के ऊपर रखे कुशों पर किया, क्योंकि शास्त्रों में यही कहा गया है की कुशों पर पिण्डदान करें -- 'पिण्डो देयः कुशोष्वीति.' ऐसी करने पर शांतनु का हाथ अदृश्य हो गया. भीष्म ने विधिवत श्राद्ध कर्म पूर्ण किया और वापस लौट आए. रात्री में शांतनु ने भीष्म को स्वप्न दिया और प्रसन्नतापूर्वक कहा की 'भारत श्रेष्ठ! तुम शास्त्रीय सिद्धांत पर दृढतापूर्वक डटे हुए हो, हम इससे बहुत प्रसन्न हैं, तुम त्रिकालदर्शी होओ और अंत में तुम्हें भगवान् विष्णु की प्राप्ति ही, साथ ही जब तुम्हारी इच्छा हो, तभी मृत्यु तुम्हारा स्पर्श करे.' ऐसा आशीर्वाद देकर शांतनु ने परम मुक्ति प्राप्त की और पितामह भीष्म को भी पितरों की भक्ति का फल प्राप्त हुआ. कहने का तात्पर्य यही है की श्राद्धों को शास्त्रोक्त विधि के अनुरूप हेए करना चाहिए.

श्राद्ध के लिये ज्ञातव्य बातें ... ...

1.    श्राद्ध की सम्पूर्ण प्रक्रिया दक्षिण की ओर मुंह करके तथा अपसव्य (जनेऊ को दाहिने कंधे पर डालकर बाएं हाथ के नीचे कर लेने की स्थिति) होकर की जाती है.
2.    श्राद्ध में दूध, गंगाजल, मधु, तसर का कपड़ा, दोहित्र, कुतप, कृष्ण तिल और कुश ये आठ बड़े महत्व के प्रयोजनीय हैं.
3.    श्राद्ध में पितरों को भोजन सामग्री देने के लिये हाथ से बने हुए मिटटी के (चाक से बने हुए न हों और कच्चे हों) बर्तनों का प्रयोग करना चाहिए. मिट्टी के बने हुए बर्तनों के अलावा लकड़ी के बर्तन, पत्तों के दोने (केले के पत्ते का नहीं हों) का भी प्रयोग किया जा सकता है.
4.    श्राद्ध में पितरों को भोजन सामग्री देने के लिये चांदी के बर्तनों का महत्व विशेष है. सोने, ताम्बे और कांसे के बर्तन भी ग्राह्य हैं. इसमें लोहे के बर्तनों का कदापि प्रयोग न करें.
5.    श्राद्ध में सफ़ेद पुष्पों का प्रयोग करना चाहिए. कमल का भी प्रयोग किया जा सकता है. श्राद्ध में कदंब, देवड़ा, मौलश्री, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग के पुष्प, तीक्ष्ण गंध वाले पुष्प आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
6.    श्राद्ध में तुलसीदल का प्रयोग आवश्यक है.
7.   श्राद्ध में गाय के दूध एवं उससे बनी हुई वस्तुएँ, जौ, धान, तिल, गेहूं, मूंग, आम, बेल, अनार, आंवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, चिरौंजी, बेर, इन्द्रजौ, मटर, कचनार, सरसों, सरसों का तेल, तिल्ली का तेल आदि का प्रयोग करना चाहिए. श्राद्ध में उरद, मसूर, अरहर, गाजर, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, सुपारी, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसों, चना, मांस, अंडा आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
8.    श्राद्ध बिना आसन के नहीं करना चाहिए. आसन में भी कुश, तृण, काष्ठ (लोहे की कील लगी हुए ना हो), ऊन, रेशम के आसन प्रशस्त हैं. 
9.    श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मण को भोजन करते समय आवश्यक रूप से मौन रहना चाहिए.
10.    श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण को भोजन कराने से पूर्व उनको बिठाकर श्रद्धापूर्वक उनके पैर धोने चाहिए.
11.    श्राद्धकर्ता को श्राद्ध के दिन दातुन, पान का सेवन, शरीर पर तेल की मालिश, उपवास, स्त्री संभोग, दवाई का सेवन, दूसरे का भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए.
12.    श्राद्ध के दिन भोजन करने वाले ब्राह्मण को पुनर्भोजन (दुबारा खाना), यात्रा, भार ढोना,शारीरिक परिक्श्रम करना, मैथुन, दान, प्रतिग्रह तथा होम नहीं करना चाहिए.
13.    श्राद्ध में श्रीखण्ड, सफ़ेद चन्दन, खस, गोपीचन्दन का ही प्रयोग करना चाहिए. श्राद्ध में कस्तूरी, रक्त चन्दन, गोरोचन आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
14.    श्राद्ध में अग्नि पर अकेले घी नहीं डालना चाहिए.
15.    निर्धनता की स्थिति में केवल शाक से श्राद्ध करना चाहिए. यदि शाक भी न हो, तो घास काटकर गाय को खिला देने से श्राद्ध सम्पन्न हो जाता है. यदि किसी कारणवश घास भी उपलब्ध न हो, तो किसी एकांत स्थान पर जाकर श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक अपने हाथों को ऊपर उठाते हुए पितरों से प्रार्थना करें-
न मेsस्ति वित्तं न धनं नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नोsस्मि।
तृष्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वत्मर्नि मारूतस्य!!
हे मेरे पितृगण! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि. हाँ, मेरे पास आपके लिये श्रद्धा और भक्ति है. मैं इन्हीं के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ. आप तृप्त होय जाएं. मैनें दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है.
16.    गया, पुष्कर, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में श्राद्ध किये जाने का विशेष महत्व है.
17.    श्राद्ध ऐसी भूमि पर किया जाना चाहिए जिसका ढाल दक्षिण दिशा की ओर हो.
18.    पितरों के उद्देश्य से किये जाने वाले दान में -- गाय, भूमि, तिल, सोना, घी, वस्त्र, धान्य, गुड, चांदी तथा नमक में से एक या अधिक या सभी वस्तुएँ होनी चाहिए. इस सभी वस्तुओं का दान इस महादान कहलाता है.
19.    धान्य में सप्तधान्य देने का विधान भी है. सप्तधान्य में जौ, गेहूं (कंगनी), धान, तिल, टांगुन(मूंग), सांवा और चना होता है.
20.    मृत्यु के समय जो तिथि होती है, उसे ही मरण तिथि माना जाता है और श्राद्ध उसी तिथि को करना चाहिए. मरण तिथि के निर्धारण में सूर्यदयकालीन तिथि ग्राह्य नहीं है.
21.    अर्ध्यप्रदान करने के बाद एकोदिष्ट श्राद्ध में पात्र को सीधा रखना चाहिए, जबकि पार्वण श्राद्ध में उलटा रखना चाहिए.
22.    पति के रहते मृत नारी के श्राद्ध में ब्राह्मण के साथ सौभाग्यवती ब्राह्मणी को भी भोजन कराना चाहिए.
23.    श्राद्ध के समय श्राद्ध कर्ता को पवित्री धारण अवश्य करनी चाहिए

गयाजी पंडित आचार्य प्रवीण पाठक
9661441389

Saturday 19 August 2017

गया में श्राद्ध से ‘पितृऋण’ से मिलती है मुक्ती

गया में श्राद्ध से ‘पितृऋण’ से मिलती है मुक्ती

  

वैदिक परंपरा और हिंदू मान्यताओं के अनुसार सनातन काल से ‘श्राद्ध’ की परंपरा चली आ रही है। माना जाता है प्रत्येक मनुष्य पर देव ऋण, गुरु ऋण और पितृ (माता-पिता) ऋण होते हैं। पितृण से मुक्ति तभी मिलती है, जब माता-पिता के मरणोपरांत पितृपक्ष में उनके लिए विधिवत श्राद्ध किया जाए।  

आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन महीने के अमावस्या तक को ‘पितृपक्ष’ या ‘महालया पक्ष’ कहा गया है। 

मान्यता के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का सहज और सरल मार्ग है। पितरों के लिए खास पितृपक्ष में मोक्षधाम गयाजी आकर पिंडदान एवं तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और माता-पिता समेत सात पीढ़ियों का उद्धार होता है। 

गया को विष्णु का नगर माना गया है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग चले जाते हैं। माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद है, इसलिए इसे ‘पितृ तीर्थ’ भी कहा जाता है। 

गयावाल पंडा समाज के शिव कुमार पांडे आईएएनएस से कहा कि वायुपुराण में फल्गु नदी की महत्ता का वर्णन करते हुए फल्गु तीर्थ कहा गया है तथा गंगा नदी से भी ज्यादा पवित्र माना गया है। 

लोक मान्यता है कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान एवं तर्पण करने से पितरों को सबसे उत्तम गति के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है एवं माता-पिता समेत कुल की सात पीढ़ियों का उद्धार होता है। साथ ही पिंडदानकर्ता स्वयं भी परमगति को प्राप्त करते है। देश में श्राद्घ के लिए 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिसमें बिहार के गया का स्थान सर्वोपरि है। 

पवित्र फल्गु नदी के तट पर बसे प्राचीन गया शहर की देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पितृपक्ष और पिंडदान को लेकर अलग पहचान है। पितृपक्ष के साथ साथ तकरीबन पूरे वर्ष लोग अपने पूर्वजों के लिए मोक्ष की कामना लेकर यहां पहुंचते हैं और फल्गु नदी के तट पर पिंडदान और तर्पण आदि करते हैं। गया शहर के पूर्वी छोर पर पवित्र फल्गु नदी बहती है। माता सीता के श्राप के कारण यह नदी अन्य नदियों के तरह नहीं बह कर भूमि के अंदर बहती है, इसलिए इसे ‘अंत: सलिला’ भी कहते हैं।  

विष्णुपद मुहल्ले में रहने वाले पंडा महेश लाल गुप्त बताते हैं कि सर्वप्रथम आदिकाल में भगवान श्रीराम ने फल्गु नदी में पिंडदान किया था। महाभारत के वनपर्व में भीष्म पितामह और पांडवों द्वारा भी पिंडदान किए जाने का उल्लेख है।

विद्वानों के मुताबिक, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाई गई गोलात्ति को पिंड कहते हैं। 

श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्माण भोज। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्घा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उससे विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद ब्राह्माण भोज कराया जाता है। 

पंडों के मुताबिक, शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं। 

गया के पंडे राजकिशोर कहते हैं कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान सबसे अच्छा माना जाता है। पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है। 

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों के 360 वेदियां थी जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची है। वैसे कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही है। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। 

यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख हैं। 

मध्य प्रदेश से अपने पूर्वजों का पिंडदान करने आए मंगत अग्रवाल का मानना है कि यदि पितरों की आत्मा को मोक्ष नहीं मिला है तो उनकी आत्मा भटकती रहती है। इससे उनकी संतानों के जीवन में भी कई बाधाएं आती हैं, इसलिए गया जी आकर पितरों का पिंडदान अवश्य करना चाहिए।

Thursday 10 August 2017

गया जी मे पितृपक्ष का महत्व

🌷 *पितृ पक्ष* 🌷
🙏🏻 पितृ पक्ष के 16 दिनों में. गयाजी जाकर श्राद्ध,  तर्पण, पिंडदान आदि कर्म कर पितरों को प्रसन्न किया जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार, पितृ पक्ष में दान का भी बहुत महत्व है। विशेष कर पितृदोष शांति के निमित्त गया जी मे त्रिपिन्डी तथा नारायण बली श्राद्ध अवश्य कराये जिससे पितरो को अधो गति से मुक्ति मिलता है  है पिन्डदान करने मे अक्षय लोक को प्राप्त करते है मान्यता है कि दान से पितरों की आत्मा को संतुष्टि मिलती है और पितृ दोष भी खत्म हो जाते हैं। श्राद्ध में गाय, तिल, भूमि, नमक, घी आदि दान करने की परंपरा है।
➡ इन सभी वस्तुओं को दान करने से अलग-अलग फल प्राप्त होते हैं। धर्म ग्रंथों में श्राद्ध में दान की गई वस्तु से मिलने वाले फलों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है, लेकिन बहुत कम लोग इस बारे में जानते हैं। आज हम आपको बता रहे हैं श्राद्ध में क्या वस्तु दान करने से उसका क्या फल प्राप्त होता है-
👉🏻 1. गुड़ का दान- गुड़ का दान पूर्वजों के आशीर्वाद से कलह और दरिद्रता का नाश कर धन और सुख देने वाला माना गया है।
👉🏻 2. गाय का दान- धार्मिक दृष्टि से गाय का दान सभी दानों में श्रेष्ठ माना जाता है, लेकिन श्राद्ध पक्ष में किया गया गाय का दान हर सुख और धन-संपत्ति देने वाला माना गया है।
👉🏻 3. घी का दान- श्राद्ध में गाय का घी एक पात्र (बर्तन) में रखकर दान करना परिवार के लिए शुभ और मंगलकारी माना जाता है।
👉🏻 4. अनाज का दान- अन्नदान में गेहूं, चावल का दान करना चाहिए। इनके अभाव में कोई दूसरा अनाज भी दान किया जा सकता है। यह दान संकल्प सहित करने पर मनोवांछित फल देता है।
👉🏻 5. भूमि दान- अगर आप आर्थिक रूप से संपन्न हैं तो श्राद्ध पक्ष में किसी कमजोर या गरीब व्यक्ति को भूमि का दान आपको संपत्ति और संतान लाभ देता है। किंतु अगर यह संभव न हो तो भूमि के स्थान पर मिट्टी के कुछ ढेले दान करने के लिए थाली में रखकर किसी ब्राह्मण को दान कर सकते हैं।
👉🏻 6. सोने का दान- सोने का दान कलह का नाश करता है। किंतु अगर सोने का दान संभव न हो तो सोने के दान के निमित्त यथाशक्ति धन दान भी कर सकते हैं।
👉🏻 7. वस्त्रों का दान- इस दान में धोती और दुपट्टा सहित दो वस्त्रों के दान का महत्व है। यह वस्त्र नए और स्वच्छ होना चाहिए।
👉🏻 8. चांदी का दान- पितरों के आशीर्वाद और संतुष्टि के लिए चांदी का दान बहुत प्रभावकारी माना गया है।
👉🏻 9. तिल का दान- श्राद्ध के हर कर्म में तिल का महत्व है। इसी तरह श्राद्ध में दान की दृष्टि से काले तिलों का दान संकट, विपदाओं से रक्षा करता है।
👉🏻 10. नमक का दान- पितरों की प्रसन्नता के लिए नमक का दान बहुत महत्व रखता है।
🙏🏻 दान देते समय यह मंत्र बोलना चाहिए-
🌷 यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।
🙏🏻 दान करते समय यह श्लोक बोलकर भगवान विष्णु से श्राद्धकर्म की शुभ फल की प्रार्थना करना चाहिए।
🌞
सम्पर्क
गया जी पन्डित
आचार्य प्रवीण पाठक
9661441389.   9905567875