Friday 8 December 2017

श्राद्ध प्रक्रिया के निरूपण मे परिष्कृत महत्वपूर्ण जानकारी

श्राद्धप्रक्रियाकाके निरूपणमें परिष्कृत एवं परिवर्धित संस्करण ।

कुछ शंकाओका समाधान कर रहा हूँ 

शङ्का -    मृत्युभोज --- से ऊर्जा नष्ट होती है

महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि .....
मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
जिस परिवार में मृत्यु जैसी विपदा आई हो उसके साथ इस संकट की घड़ी में जरूर खडे़ हों
और तन, मन, धन से सहयोग करें
लेकिन......बारहवीं या तेरहवीं पर मृतक भोज का पुरजोर बहिष्कार करें।
महाभारत का युद्ध होने को था,
अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया ।
दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े,
तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कृष्ण ने कहा कि
🍁
’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’
अर्थात्
"जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो,
तभी भोजन करना चाहिए।
🍁
लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो,
तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।"
🍁वैदिक धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए है,
जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वाँ संस्कार अन्त्येष्टि है।
इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया
तो सत्रहवाँ संस्कार
'तेरहवीं का भोज'
कहाँ से आ टपका।
किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है।
बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
लेकिन हमारे समाज का तो ईश्वर ही मालिक है।
इसीलिए
ऋषि दयानन्द सरस्वती,
पण्डित श्रीराम शर्मा,
स्वामी विवेकानन्द
जैसे महान मनीषियों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है।
जिस भोजन बनाने का कृत्य....
रो रोकर हो रहा हो....
जैसे लकड़ी फाड़ी जाती तो रोकर....
आटा गूँथा जाता तो रोकर....
एवं पूड़ी बनाई जाती है तो रो रोकर....
यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा हुआ।
ऐसे आँसुओं से भीगे निकृष्ट भोजन
अर्थात बारहवीं एवं तेरहवीं के भोज का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा दें।
जानवरों से भी सीखें,
जिसका साथी बिछुड़ जाने पर वह उस दिन चारा नहीं खाता है।
जबकि 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव,
जवान आदमी की मृत्यु पर
हलुवा पूड़ी पकवान खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है।
इससे बढ़कर निन्दनीय और कुछ नहीं हो सकता । ???

वरुण पाण्डेय
उपरोक्त शंकाओका  समाधान -
महाभारतके अनुशासन पर्वमें ऐसा तो कहीं नहीं लिखा , कि मृत्युभोज खाकर ऊर्जा नष्ट हो जाती है ,अपितु पोस्ट कर्ताने यह कहकर महाभारतकालमें मृत्युभोज होता था ,ऐसा सिद्ध कर दिया । ये ऊर्जा क्या होती है ? ये भी बताना पड़ेगा । ऊर्जा का तात्पर्य ब्रह्मवर्चस्व की प्राप्ति होती है ,जो ब्रह्मचर्य और तप से प्राप्त होता है । ब्रह्मवर्चस्व अब्रह्मचर्यसे अनधिकारियों-पतितोंका अन्न खाने से नष्ट होती है , श्राद्ध से नहीं । महाभारत अनुशासन पर्व में किसका भोजन त्याज्य है ? इसका स्पष्ट उल्लेख है , जिन द्विजोंका शूद्रोचित कर्म हो ,उन द्विजाधमोंका अन्न त्याज्य है , उन द्विजोंके अन्न खाने से कुलका ,वीर्यका और ब्रह्मवर्चस्वका नाश होता है ,और उस अधमका तिर्यक् योनि में कुत्तेका जन्म होता है --
"शूद्रकर्मस्वथैतेषु यो भुङ्क्ते निरपत्रप: ।
अभोज्यभोजनं भुक्त्वा भयं प्राप्नोति दारुणम् ।।
कुलं वीर्यं च तेजश्च तिर्यग्योनित्व मेव च ।
स प्रयाति यथा श्वा वै निष्क्रियो धर्मवर्जितः ।।"  (म०भा०अनु०१३५/१२-१३)        यहाँ मृतक श्राद्धका तो कोई उल्लेख ही नहीं हैं ,फिर निषेध का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।

भगवान् श्रीकृष्णके वचन उद्धृत करके धूर्तता का ही परिचय दिया है ,भगवान् के वचनका कुछ ही अर्थ है और यहाँ कुछ अर्थ करके समाज के भोले भाले लोगों की आँखों में धूल झोंकने का दुस्साहस ही किया  है । भला श्लोकमें आये शब्द 'सम्प्रीति' अर्थ प्रसन्नता कैसे हो गया ? 'सम्प्रीति' का अर्थ तो प्रेम सहित होता है । फिर ऐसा अर्थ करके छल करना नहीं तो क्या है ? दूसरा छल और कपट देखिये , इसी श्लोकमें इन्होंने लिखा है -'लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिलों में दर्द हो ,वेदना हो ,तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए ।'  अब ये श्रीमान् बताएं मूल श्लोकोंके किन शब्दों से अर्थ किया है ? ये अर्थ तो क्या , ऐसा कोई श्लोक भी नहीं है ,इस प्रकरण में । अब उद्योगपर्वके इस दुर्योधनके आतिथ्य प्रकरण पर आते हैं । क्या दुर्योधन दुःखी था या श्रीकृष्ण दुःखी थे ? जो दुर्योधनसे ये वचन बोलकर दुर्योधनका अन्न स्वीकार नहीं किया ? क्या दुर्योधनके परिवारके किसी सदस्य या किसी सुहृद-सम्बन्धी की मृत्यु हो गयी थी ? जो दुर्योधनके दिल में कोई वेदना थी ? जो श्रीकृष्णने दुर्योधनका अन्न स्वीकार नहीं किया ।       अब आपको महाभारत उद्योगपर्वके ९१ वे अध्यायके इस प्रसङ्गका सत्य बताता हूँ । सबसे पहले यह जान लेना चाहिये भगवान् श्रीकृष्ण दुर्योधनके यहाँ क्यों गए थे ? और वर्णाश्रम धर्म के अनुसार भोजन का क्या नियम है ? श्रीकृष्ण किस वर्ण और आश्रम का पालन करते हैं ? यह सब आपको ध्यान रखना चाहिये । आवश्यक नहीं चारों वर्णों का या चारों आश्रमोंका एक ही धर्म हो । ब्रह्मचारीके लिये भिक्षान्नका नियम है तो स्नातक और गृहस्थके लिये भिक्षा माँगना निषेध है , गृहस्थके लिये भोजन बनाकर अग्निहोत्र करके भोजन करने का नियम है ,तो संन्यासीके लिये अग्निका स्पर्श भी अधर्म है फिर भोजन बना ही कैसे सकता है ? इसी प्रकार ब्राह्मणके लिये दान लेना ही परम धर्म है ,तो क्षत्रियके लिये दान लेना अधर्म है , वैश्यके लिये धनका परगृह करना और सूद पर ब्याज लेना धर्म है ,तो ब्राह्मण के लिये धन का परिग्रह और सूद पर ब्याज लेना दोनों ही परम् अधर्म हैं । क्षत्रियके लिये मृगया आदि हिंसा धर्म है ,तो ब्राह्मणके लिये किसी भी प्राणी की हिंसा परम अधर्म है ,ब्राह्मणके अहिंसा अस्तेय आदि गुण प्रधान होते हैं । इसीलिए क्षत्रिय के कर्म से ब्राह्मणके कर्म के कर्म का निर्णय नहीं होता । सभी वर्णोंके लिये अलग नियम हैं । ब्राह्मणके लिये अन्न और धन का परिग्रह निषेध है ,इसीलिए वह द्विजातियोंके दानका अन्न ग्रहण करता है , यही ब्राह्मणका धर्म है , ब्राह्मण सबका गुरु है ,उसका मित्र नहीं कोई शत्रु नहीं ,वह सभी का कल्याण सोचता है ,इसीलिए सभी से दान लेकर अन्न खा सकता है ,पर धन और अन्न का परिग्रह नहीं कर सकता । क्षत्रियका धर्म प्रजा से कर बसूलकर धन का परगृह करना है, लेकिन वह किसी का दान नहीं ले सकता ।  यहाँ ध्यान देने वाली बात दुर्योधन और श्रीकृष्ण दोनों ही क्षत्रिय हैं ,वे धन का संग्रह करने के अधिकारी हैं ,दान लेने के नहीं । और दुर्योधनका आतिथ्य न स्वीकारना क्षत्रिय धर्मका पालन है , इससे ब्राह्मणका निर्धारित नहीं किया जा सकता । दुर्योधनकी सभा में श्रीकृष्ण एक क्षत्रिय होने के साथ साथ एक शत्रु राजा (कौरव-पाण्डव आपस शत्रु ही थे ,उस समय ) के शान्तिदूत भी थे ,तो शान्तिदूतकी भी मर्यादाएँ होती हैं , किसका आतिथ्य स्वीकार करे ,किसका नहीं ।   यहाँ श्रीकृष्णने यदि दुर्योधनका आतिथ्य स्वीकार नहीं  किया तो इसमें क्षत्रियोंका धर्म और शान्तिदूतका धर्म भी जुड़ा हुआ है । जब  दुर्योधनका आतिथ्य भगवान् श्रीकृष्णने स्वीकार नहीं किया ,तब दुर्योधन ने इसका कारण पूछा ,तो भगवान् श्रीकृष्णने कहा -
"कृतार्था भुञ्जते दूताः पूजां गृह्णन्ति चैव ह ।
कृतार्थं मां सहामात्यं समर्चिष्यसि भारत ।। "(उद्योगपर्व ९१/१८ )  अर्थात् - 'भारत ! ऐसा नियम है कि दूत अपना प्रयोजन सिद्ध होने पर ही भोजन और सम्मान स्वीकार करते हैं । तुम भी मेरा और मेरे उद्देश्य सिद्ध हो जाने पर  मेरा और मेरे मन्त्रियोंका सत्कार करना । '

यहाँ भगवान् के वचन से स्पष्ट है ,वे यहाँ पाण्डवोंके शान्तिदूतका धर्म निभा रहे थे ,इसीलिए दुर्योधनका अन्न स्वीकार नहीं किया , जब तक दूतका उद्देश्य सफल न हो जाता तब तक भगवान् दुर्योधनका अन्न नहीं खा सकते थे । उद्देश्य सिद्ध होने पर भगवान् ने सत्कार करने को स्पष्ट कहा है ।          
अब ये लोग जिस श्लोकसे निषेध करते हैं ,वह श्लोक भी देख लीजिए-
"सम्प्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद्भोज्यानि वा पुनः ।
न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम् ।। (उद्योगपर्व ९१/२५) अर्थात् - ' किसी के घरका अन्न या तो प्रेमके कारण भोजन किया जाता है या आपत्ति पड़नेपर । नरेश्वर । प्रेम तो तुम नहीं रखते और किसी आपत्ति में हम नहीं पड़े हैं । '       अब कोई ये बताये , श्लोकमें निषेध कहाँ हैं ? यहाँ तो प्रेम से खिलाने की चर्चा है । अब ये श्रीमान् बताएं ,अपने पूर्वजोंके निमित्त श्राद्ध आदि कर्म अश्रद्धा और बिना प्रेम के कौन खिलाता है ? सभी ब्राह्मणों को नहीं अपितु ब्राह्मण में अपने मृतक पितरों को देखकर ही प्रेम पूर्वक भोजन कराते हैं । कभी आपने ऐसा देखा है कि मृतकका कोई सदस्य ब्राह्मण को भोजन कराते समय ब्राह्मण को लट्ठ मार रहा हो , या उन ब्राह्मण को दुर्वचन बोल रहा हो ?  वह तो सदैव सम्मान से ,प्रेम से पण्डितजी कहकर ही भोजन कराता है ,फिर निषेध कैसे हो गया ? भगवान् श्रीकृष्ण के शान्तिदूतके धर्म को कहाँ इस प्रकार यद्धृत करके छल-कपट नहीं किया गया यहाँ ? उपरोक्त श्लोकोंमें तो क्षत्रिय और शान्तिदूतके भोजन करने के नियमका वर्णन है , ब्राह्मणका भोजनका नियम और धर्म इसके विपरीत है । ब्राह्मणके लिये शिलोच्छवृत्ति और दान का नियम है ।  शिलोच्छवृत्ति वाले ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ माने जाते हैं ,क्योंकि वे न तो दान लेते हैं न भिक्षा ही मांगते हैं ,न धन का ही परिग्रह ही करते हैं । वे केवल खेत में फसल कटने के बाद खेत में बचे हुए अनाज को बीनकर उसी शिलोच्छवृत्ति से पेट भरते हैं ,जिसमें खेतके स्वामीका क्या भाव है उसके प्रति ,वह दुःखी है या अंदर से खुश है , उसके घर में क्या आपदा आयी है ,यह उस तितिक्षु ब्राह्मण को कैसे ज्ञात होगी ? जो किसी के घर मांगने या किसीके घर दान लेने तब नहीं जाता है (शिलोच्छवृत्ति वाले ब्राह्मण ग्राम या नगर से दूर अरण्य में रहकर तप करते हैं ) ।  इसीलिए भगवान् श्रीकृष्णके वचनों से न तो श्राद्धका ही निषेध हो रहा है , और न ही ब्राह्मणोंके भोजनके नियम का कोई बोध हो रहा है ।

अब इस विषय पर थोडा परिशीलन करते हैं , वर्तमान में जो मृत्युभोजके नाम पर चल रहा है ,वह वास्तवमें पितृश्राद्ध 'ब्रह्मभोज' का विकृत रूप है ,जिसका संशोधन तो अवश्य होना चाहिये ,किंतु बन्द नहीं होना चाहिये । क्योंकि श्राद्धके द्वारा ही हमारे पितरों को भोजन मिलता है । विरोध करने वालों ने कितने शास्त्र पढ़े हैं ,जो श्राद्ध आर्षग्रन्थों में नहीं है कहकर विरोध करते हैं ? सर्वप्रथम बता दूँ श्राद्ध १६ संस्कारों में नहीं है, और न ही यह १७ वा संस्कार ही है । जिस प्रकार सन्ध्या-गायत्री द्विजोंके लिये विहित कर्तव्य है ,लेकिन सन्ध्याका अर्थ केवल सावित्री जप ही नहीं है ,अपितु सङ्कल्प , अघमर्षण ,प्राणायाम ,गायत्रीशापविमोचन ,सूर्यार्घ ,सावित्री जप और तर्पण आदि समस्त सन्ध्या विधाके अंतर्गत ही सन्ध्या ही हैं ,सन्ध्यासे पृथक् कोई कोई अन्य विधा नहीं है । जिस प्रकार पाणिग्रहण संस्कार केवल वधुका हाथ वरके हाथ में दे देना ही नहीं होता ,अपितु सतपदी ,सिन्दूरदान ,लाजाहोम-कन्यादानादि भी पाणिग्रहण संस्कार विधाके अंतर्गत पाणिग्रहण संस्कार ही है , पाणिग्रहण संस्कार से पृथक् कोई संस्कार नहीं है ,उसी प्रकार १६ संस्कारों में अंतिम संस्कार अन्त्येष्टिविधा के अंतर्गत ही पिण्डदान और द्वादशा 'ब्रह्मभोज' है ,उससे पृथक् नहीं है । दुसरी बात यह है कि यह निश्चित नहीं कि संस्कार केवल १६ ही थे , अलग अलग ऋषियों ने संस्कारों की संख्या अलग अलग लिखी हैं ।  महर्षि गौतमने गौतम धर्मसूत्रमें '  ४८ संस्कारोंका उल्लेख किया है । महर्षि अङ्गिराने २५ संस्कार गिनाये हैं , वैखानसगृह्यसूत्रमें १८ संस्कारोंका उल्लेख है ,तो वहीं जातूकर्ण्यने ,जैमिनी और व्यासजी ने १६ संस्कारोंका उल्लेख किया है  । पारास्करगृह्यसूत्र और वाराहगृह्यसूत्र में १३ संस्कारों का उल्लेख है तो वहीं आश्वलायनगृह्यसूत्र में मात्र १० संस्कारोंका ही उल्लेख है । इसीलिए देशकालमें संस्कारोंका लोप हो जाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं । आद्ययुग से ४८ संस्कार रहे हैं इसका उल्लेख ' संस्कारः अष्टचत्वारि' वचनसे स्पष्ट है ।  अनेकों शास्त्रों में इसका विधान है ,लेकिन हम उन्ही ग्रन्थों से प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं ,जिसके द्वारा १६ संपादित होते हैं ,और वे ग्रन्थ हैं षड्वेदाङ्गोंमें एक कल्पसूत्र । कल्पसूत्रों में गृह्यसूत्रोंमें ही १६ संस्कारोंका विधान मिलता है ,जिन्हें मन्वादि  समस्त ऋषियों ने अपने स्मृति ग्रन्थों में उद्धृत किया है , यजुर्वेदके पारस्कर गृह्यसूत्र में  अन्त्येष्टि संस्कारविधा में " एकादश्यामयुग्मान् ब्राह्मणान् भोजयित्वा "( ३/१०/४८) ," प्रेतायोद्दिश्य गामप्येके घ्नन्ति ।।" (३/१०/४९) -   (दाहसंस्कारके) ' ग्यारहवे दिन विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराएं । मृतकके उद्देश्य से गवालम्भन भी करना चाहिये । '    हरिहरभाष्यम् -- "एकादश्यामेकादशेऽहनि ब्राह्मण: कर्ता चेत् आयुग्मान् त्रिप्रभृतिविषमसङ्ख्याकान् द्विजोत्तमान् भोजयित्वा भोजनं कारयित्वा एकोद्दिष्टश्राद्धविधिना " में स्पष्ट उल्लेख कर रहे हैं । "कर्तव्यं विप्रभोजनम् ।
प्रेता यान्ति तथा तृप्तिं बन्धुवर्गेण भुञ्जता ।। "(विष्णु पुराण ३/१३/१२)

पितरोंके निमित्त किये जाने वाले कर्म को श्राद्ध कहते हैं - "देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत् । तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्यच्छ्र्द्धया युतम् ।।(ब्रह्मपुराण)

कात्यायन श्रौतसूत्र में बताया गया है कि जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो ,किन्तु पितामह जीवित हो ,तो वह व्यक्ति पिता को पिण्ड देकर पितामह को छोड़कर उनसे पूर्व के पूर्वज प्रपितामह और वृद्धपितामह को पिण्ड दे -
"पिता प्रेत: स्यात् पितामहो जीवेत् पित्रे पिण्डं निधाय पितामहात् पराभ्यां द्वाभ्यां दद्यात् ।"(का०श्रौ०सू०)     भगवान् मनुकी भी इसमें उपपत्ति है -
"पिता यस्य निवृत्त: स्याज्जोवेच्चापि पितामह: ।
पितु: स नाम सङ्कीर्त्य कीर्तयेत् प्रपितामहम् ।।"(मनु ३/२२१)

यह सत्य है कि मृतकके परिजन शोक सन्तप्त होते हैं , उनके अश्रु कोई रोक नहीं सकता । किन्तु यह भी सत्य है , जो लोग आत्मा को अविनाशी और नश्वर समझते हैं ,पुनर्जन्मके सिद्धांत को मानते हैं , वे अन्त्येष्टि संस्कार की किसी भी विधिमें अश्रु नहीं बहाते हैं ,क्योंकि वे ऐसा मानते हैं ,उन अश्रुओं से जीवात्मा दुःखी होता है । और जीवात्माकी तृप्तिके लिये ही पिण्ड और श्राद्ध दिया जाता है । जिसके परिजनकी मृत्यु हुई होती है , वह अपने मृतक परिजनको मरण उपरान्त भी उसे अतृप्त नहीं रखना चाहते हैं ,उसके भोजन के लिये ही द्वादशा और त्रियोदशा में ब्राह्मणके द्वारा अपने मृतक परिजन को भोजन कराते हैं । जब अपने ही मृतकके सन्तुष्टिके लिये पिण्डदान-ब्रह्मभोज कराया जाता है ,उसे खिलाने में परिजनों के अश्रु क्यों निकलेंगे ? लड़की काटते समय ,आटा गूथते समय या भोजन बनाते समय क्यों अश्रु बहायेंगे ? जब वे जानते हैं ,हमारे इस पिण्डदान-द्वादशा आदि विधि से मृतक परिजन ही तृप्त होगा । कपाल क्रियाके अनन्तर ही जोर से रोनेका शास्त्र में विधान है , उससे मृत प्राणीको शुख मिलता है ,अन्य और्ध्वदेहिक क्रिया , पिण्डदान और द्वादशामें अश्रु नहीं बहाते हैं ,परिजन वे जानते हैं हमारे मृतक परिजन को इससे तृप्ति मिलेगी ,इसलिये अन्त्येष्टि संस्कारमें अश्रु बहाना निषेध है , मृतक की सद्गति की प्रार्थना करनी चाहिये -
श्लेशमाश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवश: । अतो न रोडितव्यं हि क्रिया: कार्या: स्वशक्तित: "(याज्ञवल्क्य स्मृति,-गरुड़पुराण ) -" पितुः  पिण्डादिकं कुर्यादश्रुपातं न कारयेत् ।"(गरुड़पुराण ११/३)

भगवान् मनु ने भी श्राद्धके समय अश्रु बहाना निषेध किया है -" नास्रमापातयज्जातुन " (३/२२९) , "अस्रं गमयति प्रेतान् "(३/२३०)  । 
मनुजी ने शोक संतप्त परिजनोंको शोक निवारणके लिये रामायण-महाभारत, इतिहास-पुराण-हरिवंश पुराण आदि धर्म शास्त्रोंके श्रवणका विधान किया है - "स्वाध्यायं श्रावयेत्पित्र्ये धर्मशास्त्राणि चैव हि ।
आख्यानानीतिहासांश्च पुराणानि खिलानि च ।। "(मनु ३/२३२)

श्राद्ध खिलाने की आवश्यकता क्यों  है ? श्रुतिका वचन है -
"इडमोदनं नि दधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणं लोकजितं स्वर्गम् ।"(अथर्ववेद ४/३८/८) 
अर्थात् - 'इस ओदनोपलक्षित (चावलके भात) भोजन को ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूँ । यह भोजन विस्तारसे मुक्त है और स्वर्गलोक को जीतने वाला है ।'

शतपथब्राह्मणकी श्रुति कहती है - "तिर इव वै पितरो मनुष्येभ्यः "(२/३/४/२१) -'सूक्ष्म शरीर धारी होने से पितर मनुष्य में छिपे रहते हैं ।'     

मनुजी का भी यही मानना है -
"यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकस: ।
कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं तत: ।।"(१/९५) -'ब्राह्मणके मुखसे देवता हव्यको और पितर कव्यको खाते हैं । '        इसीलिए पितरों को दिया जाने वाला कव्य ,ब्राह्मण के द्वारा ही पितरों को तृप्त करता है । मृतकका दूसरी किसी भी योनि में  जन्म हुआ हो अथवा वह अतृप्त भटकती आत्मा ही हो , कुलगोत्रके उच्चारण  मन्त्रों सहित ब्राह्मण को खिलाये गये ,कव्य रूपी श्राद्ध से ,मृतक किसी भी लोकमें हो ,किसी भी योनि में हो वह भोजन रूपी योनिके जीव के अनुरूप होकर उसे प्राप्त होता है । जैसे गाय-घोड़े का जन्म मिला हो तो घास के रूप में, मनुष्य का जन्म मिला हो तो दुग्ध भोजन आदिके रूप में ।
"नाम गोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नायन्ति तम् । अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति ।।"।(वायुपुराण  ८३/१२०)

स्वामी दयानन्दजी , स्वामी विवेकानन्दजी और श्रीराम शर्मा आचार्यजी के अनुयायियोंसे हमारा न तो कोई विरोध है न कोई उनसे कोई अपेक्षा ही है , वे अपने कर्मकाण्डका किस विधि से सम्पादन करते हैं ,इससे हमें कोई आपत्ति नहीं । उनके लिये बस यही कहूँगा वे लोग आर्य समाजके सुप्रसिद्ध विद्वान श्रीदामोदर सातवलेकरजीके  अथर्ववेद भाष्यका १८ वा काण्ड अवश्य पढ़ें ।  हम तो अपने गुरु परम्परा को मानने वाले ( चाहे वे शाङ्कर सम्प्रदाय से हों अथवा वैष्णव सम्प्रदाय से हों ) स्मार्तोंके (जो स्मृति और पुराणों को प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं )  लिये लिख रहे हैं   । क्योंकि भगवान् का वचन है - 'अश्रद्धा  से किया गया हवन ,तप अथवा कुछ आर्य असत् कहलाता है । हे अर्जुन उसका फल न तो मृत्यु के उपरान्त मिलता है और न इस जन्म में ही ।'
" अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।।"(भगवद्गीता १७/२८)     इसीलिए जिन्हें हमारे स्मृति-पुराण ग्रन्थों पर श्रद्धा नहीं है , पितरोंके श्राद्ध-पिण्डदान आदि पर श्रद्धा नहीं है ,उनके श्राद्ध-पिण्डदान करने पर भी उनका यह पितरों के निमित्त किया गया कव्य कर्म निष्फल ही है ।         अब चर्चा करते हैं क्या ब्राह्मण भोज मृतक परिवार पर अतिरिक्त बोझ है ?       जो अपने देवताओं और पितरोंको  हव्य-कव्य देने में सर्व समर्थ हैं ,उन्हें अवश्य वेदकी आज्ञा का पालन करना चाहिये , श्रुतिका वचन है ,देवपितृकार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिये -"देवपितृकार्याभ्यां न प्रमादितव्यम् ।"(तै०उ०१/११/१)     । मृतकके लिये श्रुतिका वचन है -
"अपुपापिहितान्कुम्भान् यास्ते देवा अधारयन् ।
ते ते सन्तु स्वधावन्तो  मधुमन्तो घृतश्च्युत: ।।" (अथर्ववेद १८/४/२५)  अर्थ -'हे पितृदेवो ! (यान्) जो अपूपापिहितान् ) मालपूवोंसे ढके (कुम्भान् ) घट (ते) आपके लिये (देवा:) अग्नि,विश्वदेवा आदि श्राद्ध देवताओने (अधारयन् ) धारण किये हैं , (ते ते ) वे वे सब (मधुमन्त:) मधुसे युक्त और (घृतश्च्युत:) जिनसे घी चू रहा हो ऐसे पदार्थ आपके लिए (स्वधावन्तः) तृप्ति करने वाले (सन्तु) हों ।'

अब लोग कहते हैं ,जो समर्थ नहीं हैं ,उन पर तो अतिरिक्त बोझ नहीं है ? गरीब कहाँ से करेगा इतना व्यय ? तो इस पर शास्त्रका वचन है , जो श्राद्ध करने में समर्थ नहीं है ,वह फल-मुल-शाकादि से श्राद्ध करे -'अपि मूलैर्फलर्वापि प्रकुर्याभिर्धनो द्विजः ।
तिलोदकै:स्तर्पयेद् वा पितृन् स्नात्वा समाहिताः  ।।"( कूर्मपुराण २२/८६)

यदि फल-मूल-शाक खिलाने में भी समर्थ नहीं है तो  खुले में जाकर अपने दोनों हाथ ऊपर करके पितरों से कहे -' हे मेरे पितृगण ! मेरे पास श्राद्धके उपयुक्त न तो धन है ,न धान्य आदि । हाँ ,मेरे पास आपके लिये श्रद्धा और भक्ति है । मैं इन्हीके द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ । आप तृप्त हो जाएँ । मैंने (शास्त्रकी आज्ञाके अनुरूप) दोनों भुजाओंको आकाशमें  उठा रखा है ।'
" न मेऽस्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि ।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ।। (विष्णुपुराण ३/१४/३०)

श्राद्ध किसे खिलाएँ ? इस मनुजी का वचन है -
"यत्नेन भोजयेच्छ्राद्धे बह्वृचं वेदपारगम् ।
शाखान्तगमथाध्वर्यु छन्दोगं तु समाप्तिकम् ।।" (मनु०३/१४५)
अर्थात् -'श्राद्धमें यत्नपूर्वक ऐसे ब्राह्मण को जो बहुत ऋचाओंको जानने वाला वेदपारंगत हो अथवा जिसने वेद की कोई शाखा पूरी पढ़ी हो , या जिसने सम्पूर्ण वेद पढ़ा हो भोजन करावे ।'

शास्त्रोंमें विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराने का नियम है ,लेकिन देवकर्म और पितृकर्म में एक भी विद्वान् ब्राह्मण भोजन कराने से जो विशेष फल प्राप्त होता है , वह देव विद्या से विहीन बहुत ब्राह्मणों को खिलाने से भी नहीं होता  -
"एकैकमपि विद्वांसं दैवे पित्र्यै च भोजयेत् ।
पुष्कलं फलमाप्नोति नामन्त्रज्ञान बहूनपि ।।"(मनु ०३/१२९)

भीष्म पितामह का भी ऐसा ही ही वचन है , ' भारत ! वेदज्ञ पुरुष अपना प्रिय हो या अप्रिय इसका विचार न करके उसे श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये । जो दस लाख अपात्र ब्राह्मणको भोजन कराता है ,उसके यहाँ उन सबके बदले एक ही सदा संतुष्ट रहने वाला वेदज्ञ ब्राह्मण भोजन करने का अधिकारी है ,अर्थात् लाखों मूर्खकी अपेक्षा एक सत्पात्र ब्राह्मण को भोजन कराना उत्तम है ।।'
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यस्तेषां तु श्राद्धमावपेत् ।
"य: सहस्रं सहस्राणां भोजयेदनृतान् नर: ।
एकस्तन्मत्रवित् प्रीति: सर्वानर्हति भारत ।।"(अनुशासन पर्व ९०/५४)

इसलिए हजारों-लाखों को अन्त्येष्टि-श्राद्धमें खिलाना आवश्यक नहीं है ,अपितु एक ही वेदज्ञ ब्राह्मण को खिलाने सर्वसिद्धि हो जाती है ।
क्या सामान्य व्यक्ति एक वेदज्ञ ब्राह्मणको फल-मूल-शाक खिलाने का भी सामर्थ्य नहीं है ? जब शास्त्रों ने इतना सब असमर्थ के लिये विकल्प दिए ही हैं । आज सामान्य व्यक्ति पर अन्त्येष्टि और  श्राद्धान्न अतिरिक्त बोझ नहीं है, बल्कि शराब की लत गरीबों पर अति बोझ है ,जिससे परिवार तबाह हो रहे हैं ।  सर्वसमर्थ है वह अपनी श्रद्धा के अनुसार विषम संख्या में कितने भी ब्राह्मणों वेदकी सांगोपांग विधिसे कर कर ही सकता है ,और करते भी हैं  ।

श्रीमद्वाल्मीकिरामायण और महाभारत भारतवर्षके दो प्राचीन आर्ष ऐतिहासिक ग्रन्थ हैं । रामायण-महाभारत में भी मृत्योपरान्त १२वे दिन पिण्डीकरण श्राद्धका स्पष्ट वर्णन मिलता ही है , महाराज दशरथजी का दाह संस्कार करके भरतजीने १२वे दिन ब्राह्मणों को दान और श्राद्धमें भोजन कराया था -
"ततो दशाहेऽतिगते कृतशौचो नृपात्मज: ।
द्वादशेऽहनि सम्प्राप्ते श्राद्धकर्माण्यकारयत् ।।
ब्राह्मणेभ्यो धनं रत्नं ददावन्नं च पुष्कलम् ।" (अयोध्याकाण्ड ७७/१-२)

भगवान् श्रीरामने वनवास में पिताकी मृत्यु का जब ज्ञात हुआ ,तब उन्होंने वन में ही ,इङ्गुदी के गूदे में बेर मिलाकर उसका पिण्ड तैयार किया और बिछे हुए कुशोंपर उसे रखकर अत्यन्त दुःखसे आर्त हो रोते हुए यह बात कही - 'महाराज ! प्रसन्नतापूर्वक यह भोजन स्वीकार कीजिए ; क्योंकि आजकल यही हम लोगोंका आहार है । मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है ,वही उसके देवता भी ग्रहण करते हैं ।।'
"ऐङ्गुदं बदरैर्मिश्रं पिण्याकं दर्भसंस्तरे ।
न्यस्य राम: सुदु:खार्तो रुदन् वचनमब्रवीत् ।।
इदं भुङ्क्ष्व महाराज प्रीतो यदशना वयम् ।
इदन्न: पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवता: ।।"
(अयोध्याकाण्ड ८३/२९-३०)

महाभारत में महाराज पाण्डुका द्वादशा-श्राद्ध में सहस्र ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया था -
"तत: कुन्ती च राजा च भीष्मश्च सह बन्धुभिः ।
ददुः श्राद्धं तदा पाण्डो: स्वधामृत।यं तदा ।।
कुरुंश्च विप्रमुख्यांश्च भोजयित्वा सहस्रश: ।।"(आदि पर्व १२७/१)

पोस्टका अति विस्तार हो गया है ,इसलिए अब आगे कोई प्रमाण प्रस्तुत न कर रहा हूँ । कहने का तात्पर्य है ,अन्त्येष्टि-श्राद्ध की शुद्ध विधा  (द्वादशा ) त्याज्य नहीं है , अपितु मृतकके कल्याण के लिये ही है । त्याज्य तो अन्त्येष्टि-श्राद्धके नाम सामूहिक भोज किसी भी दृष्टि में उचित नहीं है ।